SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16 का उद्भव अंग–साहित्य से हुआ है और इसमें जिनभाषित एवं प्रत्येकबुद्धभाषित . संवाद हैं। 15 अब यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि वह अंग ग्रन्थ कौनसा था. जिससे उत्तराध्ययनसूत्र के ये भाग लिये गये हैं। यद्यपि निर्युक्तिकार ने उत्तराध्ययनसूत्र के परीषह अध्ययन को दृष्टिवाद से उद्धृत् बतलाया है, " किन्तु शेष अध्ययन कहां से लिए गये हैं इसका कोई उल्लेख उन्होंने नहीं किया है। इसकी सामग्री उसी ग्रन्थ से ली जा सकती है जिसमें आचार्यभाषित, महावीरभाषित और प्रत्येकबुद्धभाषित विषयवस्तु हो । नन्दी ” एवं समवायांग में प्रश्नव्याकरण के पैंतालिस अध्ययनों का उल्लेख है । अतः डॉ. सागरमल जैन के अनुसार प्रश्नव्याकरण से पहले महावीरभाषित एवं आचार्यभाषित सामग्री को उत्तराध्ययनसूत्र के नाम से अलग किया गया; फिर प्रत्येक बुद्धभाषित पैंतालीस अध्ययनों को ऋषिभाषितसूत्र के नाम से अलग किया गया होगा। चूंकि उत्तराध्ययनसूत्र की सामग्री प्रत्येकबुद्धभाषित पैंतालीस अध्ययन, जो ऋषिभाषित में हैं, के बाद की थी अतः इसे उत्तराध्ययनसूत्र नाम दिया गया। उपर्युक्त विवेचना परम्परागत मान्यता के साथ पूर्णतया समन्वय रखती है और उत्तराध्ययनसूत्र की प्राचीनता तथा प्रामाणिकता को सिद्ध भी करती है। दिगम्बरपरम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र शब्द की व्याख्या निम्न रूप ६० प्राप्त होती है आचार्य वीरसेन (वि. नौवीं शताब्दी) ने षट्खंडागम की धवलावृत्ति में लिखा है 'उत्तराध्ययनसूत्र उत्तरपदों का वर्णन करता है। 19 यहां उत्तर शब्द 'समाधान' का सूचक है। आचार्य शुभचन्द्र (वि. १६वीं शताब्दी) ने अंगपण्णति में उत्तराध्ययनसूत्र के दो अर्थ किये हैं" - - १५ ‘अंगप्पभवा जिणभासिया, य पत्तेयबुद्धसंवाय ।' १६ उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ६६, पृष्ठ ३७१। १७ नन्दीसूत्र, ६० १८ समवायांग, प्रकीर्णक समवाय सूत्र ६८ १६ 'उत्तरज्झयणं उत्तरपदाणि वण्णे ' २० 'उत्तराणि अहिज्जति उत्तरज्झयणं पदं जिणिदेहिं' Jain Education International (१) किसी ग्रन्थ के पश्चात् पढ़े जाने वाले अध्ययन और (२) प्रश्नों का उत्तर देने वाले अध्ययन । - उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ४ ( नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ३६५ ) | ( नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २७३ ) । ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड प्रथम पृष्ठ ६२१ ) । धवलाटीका पृष्ठ ६७ - (उद्धृत् 'उत्तरज्झयणाणि' द्वितीयभाग, भूमिका पृष्ठ १२ - आचार्य तुलसी, लाडनूं) अंगपण्णति ३ / २५, २६ (उद्धृत् - वही)। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy