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चाणक्य,
इसमें अर्णिकापुत्र, सुकोशल ऋषि, अवन्तिकार्तिकार्य, अमृतघोष, चिलातीपुत्र, गजसुकुमाल आदि संथारा ग्रहण करने वाली आत्माओं का संक्षेप में परिचय दिया गया है। साथ ही इनके उपसर्गविजय की प्रशंसा भी की गई है।
संथारे का साधक सभी प्राणियों से मैत्रीभाव स्थापित कर अपने अपराधों की क्षमायाचना करता है। वह उपार्जित कर्मों का क्षय करता हुआ तीसरे भव में मोक्ष को प्राप्त करता है।
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कुल मिलाकर इसमें भी समाधिमरण की प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन किया गया है। इसमें १२३ गाथायें हैं। इसके रचयिता कौन थे, यह अन्वेषणीय है। आर्य गुणचन्द्र ने इस पर अवचूरि लिखी है।
७. गच्छाचार.
इसमें गच्छ अर्थात् संघ या समुदाय में रहने वाले साधु साध्वियों के आचार का वर्णन है। इसके अनुसार जिस गच्छ में दान, शील, तप और भाव इन चार प्रकार के धर्मों का आचरण करने वाले गीतार्थ मुनि अधिक हों, वही सुगच्छ है।
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इसमें गच्छ के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि गच्छ महान प्रभावशाली है। उसमें रहने से महान् निर्जरा होती है। संघीय जीवन में सारणा, वारणा और प्रेरणा के द्वारा साधक के पुराने दोष नष्ट हो जाते हैं और नूतन दोषों की उत्पत्ति नहीं होती।
इसमें गुरू शिष्य दोनों एक दूसरे के 'आत्महितैषी' बनें, इसके लिए भी प्रेरणा दी गई है। 58
अन्त में श्रमणियों की शयनमर्यादा का वर्णन किया है और श्रमण को श्रमणियों से अति परिचय रखने एवं उनके स्पर्श करने का निषेध किया गया है।
५८ 'जीहाए विलिहतो न भद्दओ, सारणा जहिं नत्थि । डंडेणवि ताडंतो, स भद्दओ सारणा जत्थ । । सीसीऽवि वेरिओ सो उ, जो गुरुं नवि बोहए । पमायमइराघत्थं, सामायारीविराहयं । । '
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गच्छाचारप्रकीर्णक गाथा १७ एवं १८ ।
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