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नारी शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है: 'नारीसमा न नराणं अरीओ त्ति नारीओ अर्थात् नारी के समान पुरूष का कोई शत्रु नहीं है। अतः स्त्रियों का एक नाम नारी भी है।
इसी प्रकार इस ग्रन्थ में स्त्री के पर्यायवाची रामा, अंगना आदि शब्दों की भी सटीक व्युत्पत्ति की गई है।
अन्त में बताया गया है कि यह शरीर जन्म, जरा, मरण एवं वेदनाओं से भरा हुआ है। एक प्रकार का शकट (गाड़ी) है अतः ऐसी गति करनी चाहिए जिससे दुःखों से मुक्ति प्राप्त हो सके।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्य प्रतिपाद्य 'अशुचिभावना है। इसमें की गई नारी-स्वभाव की निन्दा का सम्बन्ध नारी से न जोड़कर 'वासना' से जोड़ना समीचीन प्रतीत होता है। यहां नारी को वासना का प्रतीक माना
इसमें वर्णित गर्भविषयक चर्चा की तुलना आधुनिक जीव-विज्ञान के साथ की गई है। ६. संस्तारक
जैन साधना-पद्धति में संस्तारक का अत्यधिक महत्त्व है। इसका सामान्य अर्थ तो बिस्तर या शय्या है। किन्तु यह जैनपरम्परा का पारिभाषिक शब्द है, जिसका तात्पर्य जीवन के अंतिम समय में आत्मनिरीक्षण द्वारा मन को समभाव में स्थिर रखना है। ममत्व का त्याग, पूर्वकृत दुष्कृत्यों की आलोचना, निस्पृहवृत्ति एवं निर्द्वन्द्व चेतना की साधना करते हुए मृत्यु को मंगलमय बनाना ही संथारा है।
प्रशस्त संथारे का महत्त्व बताते हुए ग्रन्थ में लिखा है कि जैसे पर्वतों में मेरू, समुद्रों में स्वयंभूरमण और तारों में चन्द्र श्रेष्ठ है, वैसे सुविहितों में संथारा सर्वोत्तम है।"
- तंदुलवैचारिक गाथा १३६ ।
५५ 'एयं सगडसरीरं जाइजरामरणवेयणाबहुला
तह उत्तह काउं जे जह मुच्चह सब्वदुक्खाणं।।' ५६ 'प्रकीर्णकसाहित्य : मनन और मीमांसा', पृष्ठ २२४ । ५७ 'मेसव्व पव्वयाणं, सयंभूरमणुब्वचेव उदहीणं ।
चंदो इव ताराणं, तह संथारो सुविहियाण।।'
- संस्तारक प्रकीर्णक गाथा ३०
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