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चूलिकाओं में सुसढ़ आदि की कथायें है। इस ग्रन्थ के सन्दर्भ में ऐसी मान्यता है कि यह मूल ग्रन्थ दीमकों के द्वारा क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में उपलब्ध ‘महानिशीथ आचार्य हरिभद्र द्वारा क्षतिग्रस्त प्रति के आधार पर पुनर्रचित है।45 ६. जीतकल्प
__'जीत', 'जीय' या 'जीअ' का अर्थ परम्परागत आचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से संबंधित एक प्रकार का व्यवहार है। इस सूत्र में जैन श्रमण के आचार सम्बन्धी प्रायश्चित्तों का विधान है। अतः इसका नाम 'जीतकल्प' रखा
गया ।
यह एक सौ तीन गाथा परिमाण है। इसके रचयिता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण हैं। इसमें प्रायश्चित्त के दस भेद बतलाये हैं
१. आलोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य और १०. पारांचिक) । तत्पश्चात् इसमें क्रिया, क्रिया से लगने वाले दोषों तथा उपसंहार में बताया गया है कि अंतिम दो प्रायश्चित्त - अनवस्थाप्य एवं पारांचिक की व्यवस्था अंतिम श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी तक ही रही। उसके पश्चात् लुप्त हो गयी। वर्तमान में अधिक से अधिक आठ प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। चूलिकासूत्र
अवशिष्ट विषयों का वर्णन या वर्णित विषयों का स्पष्टीकरण जिन ग्रन्थों में होता है वे चूलिकासूत्र कहलाते हैं। चूलिका की यह परिभाषा नन्दीसूत्र की अपेक्षा अनुयोगद्वार के साथ अधिक सम्बन्ध रखती है। १. नंदीसूत्र
नन्दी शब्द का अर्थ है- आनन्द। चूर्णिकार ने इसके तीन अर्थ किये हैं- प्रमोद, हर्ष और कन्दर्प ।
- मोहनलाल, दलीचन्द देसाई पृष्ठ ७५ ।
४५ 'जैन साहित्य न संक्षिप्त इतिहास' ४६ 'णंदणं णंदी, गंदति वा अपयेति गंदी, गंदति
वा नंदी पमोदो हरिसो कंदप्पो इत्यर्थ
- नन्दीचूर्णि पृष्ठ १, (उद्धृत 'नवसुत्ताणि' भूमिका पृष्ठ ५६ ) ।
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