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________________ ४. निशीथसूत्र जिस प्रकार निशीथ अर्थात् कतकफल को पानी में डालने से कचरा नीचे बैठ जाता है, उस प्रकार इस शास्त्र के अध्ययन से भी आठ प्रकार के कर्मरूपी मल का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो जाता है। इसलिये इसका निशीथ नाम अन्वर्थक है। निशीथ का एक अर्थ अंधकार भी किया गया है। यह सूत्र अपवाद बहुल है। जनसामान्य में प्रकाशित करने योग्य नहीं है; गोपनीय है; इसलिए भी इसे निशीथ कहा जाता है। पाठक. के तीन प्रकार है- अपरिणामक (अपरिपक्व बुद्धि वाला), परिणामक (परिपक्व बुद्धि संपन्न) एवं अतिपरिणामक (कुतर्की) । इनमें से परिणामक पाठक ही निशीथसूत्र के अध्ययन के अधिकारी हैं; अन्य नहीं। निशीथ में बीस उद्देशक हैं। इसमें चार प्रकार के प्रायश्चित्तों का वर्णन है। उन्नीस उद्देशकों में प्रायश्चित्त का विधान है और बीसवें में प्रायश्चित्त देने की विधि दी गई है। प्रथम उद्देशक में गुरूमासिक प्रायश्चित्त का वर्णन है। द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम उद्देशकों में लघुमासिक प्रायश्चित्त के विषयों का निरूपण है। छठे से लेकर ग्यारहवें उद्देशक तक गुरू चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का प्रतिपादन है। बारहवें से उन्नीसवें तक लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त का विधान है। बीसवें उद्देशक का मुख्य प्रतिपाद्य प्रायश्चित्त-दान की विधि है। ५. महानिशीथ . प्रस्तुत आगम के नाम से प्रतीत होता है कि निशीथसूत्र महानिशीथ का बृहद् रूप है । इसमें छ: अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं। यह ४५५४ गाथा परिमाण है। इसका प्रथम अध्ययन शल्योद्धरण है। इसमें पाप रूपी शल्य के निवारणार्थ १८ पापस्थानकों का वर्णन है। दूसरे में कर्मविपाक का वर्णन करते हुए पापों की आलोचना पर प्रकाश डाला गया है। तीसरे एवं चौथे अध्ययन में कुशील साधुओं से दूर रहने का उपदेश है। पांचवें नवनीतसार अध्ययन में गच्छ के स्वरूप का विवेचन है। छठे अध्ययन में प्रायश्चित्त के दस भेदों एवं आलोचना के चार भेदों का विवेचन है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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