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________________ ज्ञान सबसे बड़ा आनंद है। प्रस्तुत आगम में ज्ञान के स्वरूप का वर्णन है। अतः इसका नाम नन्दी रखा गया है। इसमें एक अध्ययन है, इसमें ५७ गद्यसूत्र और ६७ गाथायें हैं। श्लोक परिमाण ७०० हैं। प्रारम्भ में प्रभु महावीर, जिनशासन आदि की स्तुति की गयी है। उसके पश्चात् महाज्ञानी आचार्यों की परम्परा के निर्देश के साथ पांच ज्ञानों का सुविस्तृत वर्णन है। सम्यक्-श्रुत के प्रसंग में द्वादशांग या गणिपिटक के आचारांग, सूत्रकृतांग आदि बारह भेदों का उल्लेख किया है। प्रासंगिक रूप में मिथ्या श्रुत की भी चर्चा की गई है। गमिक, अगमिक, अंगप्रविष्ट, अंगबाह्य आदि के रूप में श्रुत का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। सामान्यतयाः इसके रचयिता देवभद्रगणि माने जाते हैं। किन्तु कुछ विद्वान देवर्द्धिगणि को इसके रचयिता मानते हैं। रचनाकाल विक्रम की पांचवीं शती २. अनुयोगद्वार प्रस्तुत आगम का नाम अनुयोगद्वार है। अनुयोग का अर्थ है - व्याख्या । इसमें आगमसूत्रों की व्याख्या पद्धति का निर्देश है। इसके चार द्वार हैं। १८६६ श्लोक परिमाण उपलब्ध है। १५२ गद्यसूत्र हैं और १४३ पद्यसूत्र हैं। इसमें व्याख्या पद्धति के चार अंग बताए गए हैं- १. उपक्रम २. निक्षेप ३. अनुग़म और ४. नय। नियुक्तियों में निक्षेप पद्धति की प्रधानता है। प्रस्तुत आगम में इस बात को स्वीकृत किया गया है। इसका प्रारम्भ पांच ज्ञान के निर्देश से होता है। उसके पश्चात् अनुयोगों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें सप्तस्वर, नवरस, प्रमाण, नय आदि की भी चर्चा की गई है। इस सूत्र में जैनन्याय के बीज छिपे हुए हैं। इसके आधार पर उत्तरवर्ती काल में न्यायशास्त्र का विस्तृत निरूपण हुआ है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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