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________________ (५) यथाख्यात। प्रायश्चित्त के दस प्रकार हैं -आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, उत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक | वर्तमान में सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय इन दो चारित्र की ही व्यवस्था है। शेष तीन चारित्र विच्छिन्न हो गये हैं। सामायिकचारित्र अल्पकालीन होता है एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र जीवनपर्यन्त रहता है। अतः यह भी संभव है कि छेदोपस्थापनीय चारित्र से प्रायश्चित्त का सम्बन्ध होने के कारण इन सूत्रों का नाम 'छेदसूत्र दिया गया हो। छेदसूत्रों की विषयवस्तु संक्षेप में निम्नानुसार है। १. दशाश्रुतस्कन्ध दशाश्रुतस्कन्ध के दो नाम मिलते हैं। 'नन्दीसूत्र' में इसका नाम ‘दशा एवं स्थानांग में इसका नाम 'आयारदशा मिलता है। इसमें दस अध्ययन हैं, अतः इसका नाम दशा है। इसके मूल प्रतिपाद्य की अपेक्षा से इसका नाम 'आयारदशा' है। इसका ग्रन्थाग्र १८३० श्लोक परिमाण है। प्रथम दशा अध्ययन में बीस असमाधि स्थानों का वर्णन है। जिससे चित्त अशांत हो; ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि मोक्ष मार्ग से आत्मा पतित हो, वह असमाधि है । द्वितीय दशा में इक्कीस शबल दोषों का वर्णन किया गया है। जिन कार्यों से चारित्र मलिन होता है, वे शबल दोष हैं। तृतीय दशा में तैंतीस आशातनाओं का वर्णन है । चतुर्थ दशा में आठ प्रकार की गणिसंपदाओं का वर्णन है। श्रमणों के समुदाय को गण कहते हैं। गण का अधिपति गणि होता है। गणि की अर्हताएं गणि सम्पदा कहलाती हैं। इस दशा के अन्त में गुरू शिष्य संबंधी बत्तीस प्रकार की विनय प्रतिपत्ति का भी उल्लेख किया गया है। पांचवीं दशा में दस प्रकार की चित्तसमाधि एवं मोहनीयकर्म की विशिष्टता पर प्रकाश डाला गया है। छठवीं, सांतवी दशा में क्रमशः उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं एवं श्रमण की बारह प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। आठवीं दशा में पर्युषणाकल्प का वर्णन है। वर्तमान में जो ‘कल्पसूत्र' है वह दशाश्रुतस्कंध का ही आठवां अध्ययन है। दशाश्रुतस्कंध की प्राचीन प्रतियां, जो चौदहवीं शताब्दी से पूर्व की है, उनके आठवें अध्ययन में कल्पसूत्र की विषयवस्तु के समान साध्वाचार सम्बन्धित चातुर्मासिक ४२ 'नन्दीसूत्र' ७८ ४३ 'स्थानांगसूत्र' १०/१५ ('नवसुत्ताणि' लाडनूं पृष्ठ २६७)। ('अंगसूत्ताणि' लाडनूं खण्ड १ पृष्ठ ८१४) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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