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________________ चौथे 'प्रतिक्रमण अध्ययन में आत्म गुणों के विकास एवं संयम पालन में हुई स्खलनाओं के लिये प्रतिक्रमण का विधान किया गया है। पांचवें 'कायोत्सर्ग' अध्ययन में काया के प्रति जो आसक्ति व ममत्व है, उसका त्याग करने की प्रेरणा दी गई है। कायोत्सर्ग आत्मा और देह की भिन्नता का अवबोध कराने वाली साधना है। छट्टे 'प्रत्याख्यान' अध्ययन में भविष्य में दुराचरण का सेवन नहीं करने के संकल्प के साथ तप-त्याग में प्रवृत्त होने हेतु प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) का वर्णन किया गया है। प्रत्याख्यान के माध्यम से आत्मा संयम में स्थिर होती है। इस प्रकार इस सूत्र में छ: आवश्यकों के माध्यम से आत्मा की त्रैकालिक शुद्धि का सुन्दर विधान किया गया है। सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वन्दन एवं कायोत्सर्ग वर्तमान में आत्मा को शुद्ध बनाते हैं। प्रतिक्रमण अतीत के पापों की शुद्धि की प्रक्रिया है तथा प्रत्याख्यान भविष्य में आत्मा अशुद्ध न बने इसकी सुरक्षा आवश्यकसूत्र को श्वेताम्बर अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय अर्थात् स्थानकवासी और तेरापंथी छेद एवं मूलसूत्रों से पृथक् स्वतन्त्र सूत्र मानते हैं, जबकि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे मूल सूत्रों के अन्तर्गत मानता है। वैसे नन्दीसूत्र में अंगबाह्य के दो वर्ग किये गये हैं - आवश्यक और आवश्यक व्यतिरिक्त। उस काल में आवश्यकसूत्र के उपर्युक्त छ: अध्ययन छ: स्वतन्त्र सूत्र माने जाते थे। ४. पिण्डनियुक्ति पिण्ड का अर्थ भोजन है। इस सूत्र में साधु की आहार विधि का वर्णन किया गया है। अतः इसका नाम पिण्डनियुक्ति रखा गया है। इसमें ६७१ गाथायें हैं। पिण्डनियुक्ति के आठ अधिकार हैं - १. उद्गम २. उत्पादन ३. एषणा ४. संयोजना ५. प्रमाण ६. अंगार ७. धूम और ८. कारण। इन अधिकारों में इनके नाम के अनुसार विषय का वर्णन किया गया है। ३६ 'नन्दीसूत्र' ७४ - ('नवसुत्ताणि' लाडनूं पृष्ठ २६७ ) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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