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________________ होगा। कालान्तर में बारह उपांगो की संख्या की पूर्ति करने हेतु इसे विभाजित कर दिया गया। स्थानांगसूत्र में ‘सूर्यप्रज्ञप्ति', 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' तथा 'द्वीपसागरप्रज्ञप्ति' के साथ-साथ 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' को भी अंगबाह्य चार प्रज्ञप्तियों में उल्लेखित किया गया है। 29 नन्दीसूत्र में तो चन्द्रप्रज्ञप्ति को कालिक और सूर्यप्रज्ञप्ति को उत्कालिक बतलाया गया है। वर्ण्य विषय एक होने पर भी इनका दो ग्रन्थों में विभक्त होने का आधार क्या है, यह अन्वेषण का विषय है । 30 मुनि नगराजजी ने अपनी पुस्तक 'जैनागम दिग्दर्शन' में इस सन्दर्भ में एक सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया है; जिसका संक्षेप में आशय यह है कि शब्द अनेकार्थक होते है अतः यह भी संभव है कि इनकी शब्दावली एक होने पर भी भाव अभीष्ट ग्रन्थानुसार हो । " आचार्य देवेन्द्रमुनि ने चन्द्रप्रज्ञप्ति और सूर्यप्रज्ञप्ति में समानता प्रतिपादित करते हुए भी चन्द्रप्रज्ञप्ति की नौ विशेषताएं बतलायी हैं। 2 इस प्रकार यह ग्रन्थ भी ज्योतिष विज्ञान की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण है। ८. निरयावलिका २७ निरयावलिका - श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत पांच उपांगों का समावेश किया गया है; जो इस प्रकार है १. कल्पिका (निरयावलिका) २. कल्पावतंसिका (कप्पवडंसिया) ३. पुष्पिका (पुफिया) ४. पुष्पचूलिका (पुप्फचूलिया ) ५. वण्हि दशा (वृष्णिदशा) विद्वानों के अनुसार ये पांचों उपांग पहले निरयावलिका के नाम से ही प्रसिद्ध थे। किन्तु बाद में बारह उपांगों का बारह अंगों से सम्बन्ध स्थापित करने पर इनकी गणना पृथक की जाने लगी। २६ 'स्थानांगसूत्र' ४/२/१८६ ३० 'नन्दीसूत्र' ७७, ७८ ३१ 'जैनागमदिग्दर्शन' पृष्ठ ६६ से १०२ ३२ 'जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा' पृष्ठ २७० Jain Education International (अंगसुत्ताणि' लाडनूं खण्ड १ पृष्ठ ६१३) । ( नवसुत्ताणि' लाडनूं पृष्ठ २६७)। नगरा । देवेन्द्रमुनि । For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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