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युगलिक अवस्था की समाप्ति और समाज एवं राज्य व्यवस्था के प्रारम्भ होने के विवरण के साथ इसमे भगवान ऋषभदेव के जीवन प्रसंगों का भी विस्तृत वर्णन किया गया है। ६. सूर्यप्रज्ञप्ति
सूर्यप्रज्ञप्ति (सूरपण्णति) को छठा उपांग माना जाता हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य आदि ज्योतिष्क-चक्र का वर्णन है।
इस ग्रन्थ में बीस प्राभूत हैं। उपलब्ध मूल पाठ. २२०० श्लोक परिमाण है। इसमें ज्योतिष सम्बन्धी मूल मान्यताओं का संकलन किया गया है, इसमें वर्णित नक्षत्रों के गोत्र आदि मुहूर्त शास्त्र का आधार है।
पाश्चात्य विद्वान विण्टरनित्स आदि इसे गणित, ज्योतिष तथा खगोल विज्ञान की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ मानते हैं। डॉ. शुब्रिग (हेमबर्ग यूनिवर्सिटी जर्मनी) ने अपने भाषण में कहा है कि जैन विचारकों ने जिन तर्कसम्मत एवं सुसंगत सिद्धान्तों को प्रस्तुत किया है, वे आधुनिक विज्ञानवेत्ताओं की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें विश्व के स्वरूप के साथ-साथ ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र, सूर्य आदि की गति पर गहराई से विचार किया गया है। वस्तुतः सूर्यप्रज्ञप्ति के अध्ययन के बिना भारतीय ज्योतिष के इतिहास को सही रूप से नहीं समझा जा सकता। इस प्रकार यह आगम भारतीय वाङ्मय का अपूर्वग्रन्थ प्रतीत होता है। ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति
चन्द्रप्रज्ञप्ति (चंदपण्णति) सातवां उपांग है। इसके नाम से प्रतीत होता है कि इसमें चन्द्रमा से सम्बन्धित वर्णन होगा; किन्तु मंगलाचरणरूप तथा बीस प्राभृतों का संक्षेप में वर्णन करने वाली अठारह गाथाओं के अतिरिक्त इस ग्रन्थ की सामग्री ‘सूर्यप्रज्ञप्ति' से अक्षरशः मिलती है। इस आधार पर कुछ विद्वानों की मान्यता है कि मूलतः यह एक ही ग्रन्थ था और इसका नाम सूर्य-चन्द्र प्रज्ञप्ति
२७ (क) 'गुरू के द्वारा शिष्यों को देश और काल की उचितता के साथ जो ग्रन्थ सारणियां दी जाती हैं, उन्हें प्राभृत कहा जाता
- 'अभिधानराजेन्द्रकोश', पंचम भाग पृष्ठ ६१४ । (ख) 'सम्पूर्ण शास्त्र के भिन्न भिन्न भाग प्राभूत कहलाते हैं।' - जैनप्रवचनकिरणावलि पृष्ठ ३६८ । 25 He who has a thorough knowledge of the structure of the world cannot but admire the inward logic and harmony
of jain ideas. Hand in hand with the refined cosmographical ideas goes a high standard of astronomy and mathematics. A history of Indian Astronomy is not conceivable without the famous Surya Pragyapti:'. Dr. Schubring - (उद्धृत 'जैन आगम साहित्य' पृष्ठ २६४ - आचार्य देवेन्द्र मुनि)।
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