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इस प्रकार जैनागमों में शुद्ध, शाकाहार एवं प्रासुक (बीज रहित) पदार्थों के ग्रहण । का ही विधान है।
वैचारिक - प्रदूषण
पर्यावरण-सुरक्षा के लिये अनिवार्य एवं अपरिहार्य पहलू वैचारिक-विशुद्धि है । हमारे अध्यात्म प्रधान ग्रंथों में इस बात पर विशेष ध्यान दिया गया है कि व्यक्ति का वैचारिक-पक्ष शुद्ध होना चाहिये । आन्तरिक प्रदूषण ही बाह्य प्रदूषण का कारण
(एक व्यक्ति ने नीम के पेड़ का पत्ता तोड़ा चखा, कड़वा लगा । उसने नीम का फूल तोड़ा, चखा, कड़वा लगा । इसी प्रकार उसने डाली तोड़ी, वह भी कड़वी । आरिवर उसने उस वृक्ष का जड भाग चखा, वह भी कड़वा । उसकी समझ में आ गया जिसका मूल ही कड़वा है उसकी शाखा, प्रशाखा, फल, फूल, पत्ते आदि कंड़वे हों तो क्या आश्चर्य !! )
(पूर्वोक्त घटना हमारे प्रदूषण की चर्या के साथ भी घटित होती है । आज विश्व में चारों ओर पृथ्वी, जल, वायु, वन, वातावरण आदि बाह्य घटकों को प्रदूषण से मुक्त रखने के उपाय खोजे जा रहे हैं किन्तु ये सब पूर्णतः तब ही नष्ट हो सकते हैं जब प्रदूषण के आन्तरिक कारण समाप्त होंगे । ( विश्व में चारों ओर व्याप्त हिंसा, आतंकवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, व्यभिचार, सांप्रदायिक संकीर्णता, असहिष्णुता, हड़ताल, आंदोलन, तोड़फोड़ के दृश्य, ढहते हुये आदों, गिरते हुये नैतिक मूल्यों एवं मिटती हुई मर्यादाओं का मूल कारण मानव की दूषित विचारधारा है ।)
उत्तराध्ययनसूत्र का मूल हार्द मानव को मानसिक प्रदूषण से मुक्त करना है । इसका प्रत्येक अध्ययन, प्रत्येक गाथा, प्रत्येक परिच्छेद, प्रत्येक पंक्ति, प्रत्येक शब्द आन्तरिक-शुद्धि का संदेशवाहक है । इन संदेशों को प्रयोगात्मक रूप देने पर निस्संदेह आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रदूषण से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है ।
(मानव मन में अहिंसा-हिंसा, प्रियता-अप्रियता, राग-द्वेष, शांति-क्रोध, निरहंकार-अहंकार, सरलता-मायाचार, निर्लोभिता-लोभ, करुणा-क्रूरता, अनाग्रह-दुराग्रह, समत्व-ममत्व, सहिष्णुता-असहिष्णुता आदि प्रतिपक्षी भाव रहते हैं । इसमें से जब हम दूसरों के प्रति सहयोग, परोपकार, दया, करुणा, सहिष्णुता, संतोष आदि शुभ भावों में जीते हैं तो उससे समस्त पर्यावरण-जड़ चेतन जगत में प्रसन्नता एवं सहजता व्याप्त हो जाती है । इसके विपरीत यदि मन में क्रोध, मान, माया,
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