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रसायनिक - खाद्य के उपयोग से भूमि विषैली होती जा रही है । भूमि की उर्जा शक्ति समाप्त होती जा रही है । फल, शाक-सब्जी, अनाज आदि खाद्य पदार्थों की रस शक्ति का हास होता जा रहा है ।
जैनाचार में श्रावक के लिये भूमिस्फोटक कर्म निषिद्ध है अर्थात् ऐसा व्यापार जिसमें भूमि का अनियंत्रित खनन किया जाता है, वह अनुचित है, त्याज्य है । दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है:- पुढविं, भित्ति, सिलं, लेलुं नैव भिंदे नैव. संलिहे - अर्थात् पृथ्वी, दीवार, शिला, ढेला आदि का भेदन नहीं करना चाहिये और उनका घर्षण भी नहीं करना चाहिये । उत्तराध्ययनसूत्र में पृथ्वी के तैयालिस भेद बताकर उनकी हिंसा के त्याग की प्रेरणा दी गई है ।
इस प्रकार जैन परम्परा में ऐसे अनेक विधान है जो पृथ्वी संरक्षण में सहायक बनते हैं ।
जल प्रदूषण और जल संरक्षण
जल प्रकृति का अनमोल उपहार है यह जीवन की प्रथम आवश्यकता है, किन्तु आज जल का भयंकर अपव्यय हो रहा है जहां 10-15 लीटर पानी में व्यक्ति की दैहिक शुद्धि संभव है वहीं आज सुविधावादी प्रवृत्ति के कारण एक व्यक्ति 500 लीटर जल का दुरुपयोग करता है । नल, बेसिन, फव्वारें आदि के द्वारा पानी का अपव्यय होता है । पक्की इमारतें, डामर की सड़कें, गन्दगी की निकासी के लिये आधुनिक गटर – प्रणाली (Drainage system) आदि शहरीकरण की प्रवृतियों के कारण प्राकृतिक जल धरती के अन्दर नहीं पहुंच रहा है । फलस्वरूप, पानी का स्तर निम्न से निम्न होता जा रहा है । यह अत्यधिक चिन्ताजनक है । कहीं कहीं तो 100' के नीचे तक भी पानी उपलब्ध नहीं है । पानी दूध से महंगा हो गया है । जल के निरर्थक अपव्यय से आज कई स्थानों पर पेयजल की समस्या उत्पन्न हो गई है । कहा जाता है कि अगले विश्वयुद्ध का कारण जल होगा ।
जल को प्रदूषण एवं शोषण से मुक्त रखने के लिये उत्तराध्ययनसूत्र में जल के जीवों की हिंसा का निषेध किया गया है । इसमें वर्णित श्रमणाचार से ज्ञात होता है कि नदी, तालाब आदि में मल-मूत्र का विसर्जन नहीं करना चाहिये । इसप्रकार कूड़ा-कर्कट, रेडियो-धर्मी पदार्थ, मल-मूत्र आदि का जल में डालना जल एवं जल
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