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________________ मानव का मुख्य उत्तरदायित्व है कि वह प्राकृतिक परिवेश को सुरक्षित रखने में अपना योगदान दे । पर्यावरण को प्रदूषण एवं शोषण से मुक्ति दिलाये । पर्यावरण संरक्षण का कार्य मात्र नारेबाजी या पेम्फलेटबाजी से नहीं हो सकता । आज पर्यावरण – संतुलन की जितनी चर्चा है, उतनी चिन्ता नहीं है । मनुष्य का स्वभाव बन गया है कि वह समस्या के सन्दर्भ में चर्चा करता है किन्तु उसके समुचित समाधान की खोज नहीं करता । और किसी प्रकार से यदि समाधान मिल भी जाये तो वह उसे क्रियान्वित नहीं करता है। यही कारण है कि समस्या, समस्या ही बनी रहती है । समस्या सबकी समझ में है, फिर भी व्यक्ति वही कर रहा है जो अनुचित है । अतः सिद्धान्तों को आत्मसात् करना अत्यन्त आवश्यक है । प्राचीन युग था जब अहिंसा का मूल्य आत्मशुद्धि एवं मोक्ष के लिये था किन्तु आज अहिंसा, जीने के लिये, पर्यावरण की सुरक्षा के लिये भी विशेष आवश्यक हो गई है । __ पृथ्वी प्रदूषण और पृथ्वी संरक्षण - प्राकृतिक संपदा हमारा पर्यावरण है । उसका संरक्षण अत्यावश्यक है । पृथ्वी सभी प्राणियों का आधार है किन्तु आज मानव पृथ्वी को प्रदूषित एवं शोषित करके स्वयं के पांवों पर कुल्हाड़ी मारने का कार्य कर रहा है । भूमि की उर्वरा शक्ति का इस प्रकार प्रयोग किया जाना चाहिए कि उसकी शक्ति सर्जनात्मक बनी रहे ।। (आज पर्वतों को अनियन्त्रित रूप से तोड़ा जा रहा है । पहाड़ी क्षेत्रों को समतल बनाया जा रहा है | भविष्य की ओर दृष्टिपात किये बिना पृथ्वी का खनन किया जा रहा है । खनिज सम्पदा को अधिक प्राप्त करने की चाह में प्राकृतिक संतुलन बिगड़ रहा है ।) जैन धर्म में पृथ्वीकाय और उसके आश्रित जीवों का रसायन या अन्य शस्त्रों से हनन करने का निषेध है । सजीव भूमि में मल-मूत्र त्याग को भी जैनाचार में अनुचित माना गया है । इससे कीट-मच्छर आदि सम्मूर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती है । तथा वातावरण प्रदूषित होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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