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आधार पर यज्ञ का आध्यात्मिकीकरण किया गया है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो जातिवाद, यज्ञवाद एवं तीर्थस्नान उस युग की जटिल समस्यायें थीं । ये तीनों अनुष्ठान व्यक्ति को धर्म की अपेक्षा अधर्म की ओर उन्मुख कर रहे थे। उत्तराध्ययनसूत्र में इन तीनों का आध्यात्मिकीकरण करके इनके सम्बन्ध में सम्यक् समाधान प्रस्तुत किया गया है।
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उत्तराध्ययनसूत्र अपने युग की समस्याओं का समाधान ही प्रस्तुत नहीं करता, वरन् यह वर्तमान कालीन समस्याओं के निराकरण में भी पूर्णतः सक्षम है। मानव की समस्यायें प्राय: समान होती हैं, अतः देश और काल के अन्तराल से भी उनमें विशेष अन्तर नहीं होता। मुख्य समस्यायें तो हर युग की प्रायः समान ही रही. हैं; देश और काल के साथ उनकी बाह्य अभिव्यक्तियों के स्वरूप में अवश्य परिवर्तन आता है। सम्पूर्ण समस्याओं की जड़ में विषमता है। उत्तराध्ययनसूत्र विषमता को दूर करने के लिये समता एवं वीतरागता को उपलब्ध करने की प्रेरणा देता है। इसके बत्तीसवें अध्ययन में सोदाहरण विषमता से समता की ओर अग्रसर होने का मार्ग प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार सबसे बड़ी समस्या 'विषमता' है एवं उसके निराकरण का उपाय 'समता' है। मानव जीवन की मुख्य विषमतायें निम्न हैं
(१) सामाजिक विषमता;
(३) वैचारिक विषमता और
(२) आर्थिक विषमता; (४) मानसिक विषमता |
इन चारों विषमताओं को दूर करने के लिये उत्तराध्ययनसूत्र अनेक उपाय प्रस्तुत करता है जिनमें से कुछ निम्न हैं।
(१) सामाजिक विषमता
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आज मानव 'मैं' एवं 'मेरे के घेरे में आबद्ध है। मनुष्य का क्षुद्र स्वार्थ उसे ऊपर नहीं उठने देता है। स्वार्थवृत्ति व्यक्ति को संकुचित बना देती है, फलतः व्यक्ति जिसे अपना मानता है, उसका हित चाहता है और जिसे अपना नहीं मानता है। उसके हित की उपेक्षा करता है। यह स्वार्थ जन्य संकीर्णता ही सामाजिक विषमता का मूलकारण है और इसका मूल 'रागवृत्ति' की प्रबलता है। राग ही मनुष्य में अपने पराये की भावना पैदा करता है और सामाजिक वातावरण को विषम,
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