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अग्निहोत्र (यज्ञ) है और यज्ञ का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्रमा है और धर्म का मुख काश्यप अर्थात् ऋषभदेव हैं।" इसी क्रम में अग्निहोत्र के वास्तविक स्वरूप को समझाते हुए टीकाकारों द्वारा कहा गया कि कर्म रूपी ईंधन के द्वारा धर्मध्यान रूपी अग्नि में आहुति देना ही वास्तविक अग्निहोत्र है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यज्ञ के इस आध्यात्मिक अर्थ ने अन्य चिन्तकों को भी प्रभावित किया । यही कारण
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वहां सेवा को ही सच्चा यज्ञ कहा
है कि गीता में भी यज्ञ का अर्थ बदल गया है गया है।
याज्ञिक का आध्यात्मिक स्वरूप
सच्चा याज्ञिक अर्थात् यज्ञ करने वाला कैसा होता है इसका स्वरूप प्रकाशित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के बारहवें अध्ययन में कहा गया है कि जो पांच संवरों से सुसंवृत होता है, जो असंयत जीवन की इच्छा नहीं करता है, जो पवित्र आचरण वाला है एवं 'देहासक्ति का त्यागी है, वह महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ का सम्पादन करता है। 12
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तीर्थस्नान का आध्यात्मिक स्वरूप
यज्ञ के सच्चे स्वरूप का प्रतिपादन करने के साथ हीं उत्तराध्ययनसूत्र में सच्चे तीर्थस्नान का स्वरूप भी बतलाया गया है। इसमें मुनि हरिकेशबल के द्वारा कहा गया है कि अकलुषित एवं प्रसन्न लेश्या (मनोवृति) वाला आत्मा का धर्म ही मेरा ह्रद (जलाशय) है। ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है जहां नहा कर मैं विमल, विशुद्ध और शीतल होकर कर्मरज का त्याग करता हूं। 3
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उत्तराध्ययनसूत्र में जातिवाद, यज्ञयाग या तीर्थस्नान का खण्डन नहीं किया वरन् उत्तराध्ययनसूत्र ने कर्मकाण्डों को आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया है। यज्ञ के विषय में भी इसका मूल सन्देश यही है कि आध्यात्मिक जीवनदृष्टि और अहिंसा की पीठिका पर स्थित कार्य पवित्र एवं शुद्ध होते हैं। अतः हर अनुष्ठान के साथ हिंसा के स्थान पर अहिंसा की प्रतिष्ठा करनी चाहिए और इसी दृष्टिकोण के
११ उत्तराध्ययनसूत्र २५/१६ ।
१२ उत्तराध्ययनसूत्र १२ / ४२ ।
११३ उत्तराध्ययनसूत्र १२ / ४६ ।
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