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________________ ५६२ अस्वस्थ, अशुद्ध बनाता है और समाज में ऊंच नीच की भेद रेखा खींचता है। यद्यपि सामान्यजन के लिये एक साथ राग का पूर्णतः निरसन सम्भव नहीं है, फिर भी शनैः शनैः विवेक पूर्वक इससे मुक्त हुआ जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में राग भाव कहां-कहां होता है और उसकी विफलता कालान्तर में आत्मा को कितना कष्ट देता है, इसका व्यापक एवं सजीव चित्रण किया गया है। इसके द्वारा प्रतिपादित साधना का मूल लक्ष्य समत्व को उपलब्ध करना है, क्योंकि वीतराग आत्मा अरागी होने से सामाजिक विषमता का कारण नहीं' बनती है। इसके उन्नीसवें अध्ययन में ममत्व एवं अहंकार के त्याग एवं सभी जीवों पर समभाव रखने की प्रेरणा दी गई है। ___ ममत्व से मुक्ति के लिये सांसारिक सुखों की नश्वरता एवं सम्बन्धों की असारता का दिग्दर्शन कराते हुये उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि परिवारजन, दास-दासी एवं अपार सम्पत्ति मानव के लिये शरणभूत नहीं हो सकती है। आज भी यदि यह सत्य मानव के समझ में आ जाये तो वह स्वार्थ बुद्धि से नहीं अपितु कर्तव्यबुद्धि द्वारा पारिवारिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह कर सकता है और इस प्रकार सामाजिक विषमताओं को दूर करने में सफल हो सकता है, क्योंकि सभी सामाजिक विषमतायें स्वार्थ और संकीर्ण जीवनदृष्टि का परिणाम है। उत्तराध्ययनसूत्र जातिगत वैषम्य एवं वर्गभेद का खुलकर विरोध करता है। आज समाज' में यदि उत्तराध्ययनसूत्र का मात्र यह सूत्र लागू हो जाय कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र इन चारों वर्णो का विभाजन. कर्म के आधार पर है, जन्म के आधार पर नहीं, व्यक्ति अपने चरित्र या आचार से श्रेष्ठ होता है, जन्म से नहीं, तो सामाजिक विषमता को निःसन्देह दूर किया जा सकता है। उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित वर्ण एवं जाति से सम्बन्धित चर्चा को हम इसी ग्रन्थ के चौदहवें अध्याय 'उत्तराध्ययनसूत्र के सामाजिक दर्शन' में विस्तृत रूप से कर चुके हैं। आज इस बात का जोर शोर से प्रचार किया जा रहा है कि जातिवाद एवं ऊंच-नीच की भावना को समाप्त किया जाय । सरकार निम्नवर्ग के लिये हर क्षेत्र में आरक्षण व्यवस्था भी कर रही है, किन्तु यह योग्यता का अवमूल्यन है। इन सुविधाओं के आधार पर जातिवाद मिटने के स्थान पर और अधिक सुदृढ़ हो रहा है। आज आवश्यकता है व्यक्ति के चारित्रिक मूल्यों के संरक्षण की। श्रेष्ठता का मानदण्ड १४ उत्तराध्ययनसूत्र ६/३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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