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सूत्र इस तथ्य को स्पष्टतः प्रकट करता है कि वहां प्रयुक्त विनय शब्द 'विनम्रता एवं 'आचार' दोनों का सूचक है।
उस युग में केवल ज्ञानवादी एवं आचारवादी विचार धारायें प्रचलित थीं। इसका उल्लेख करते हुए उन्होंने बौद्धग्रन्थ में प्रयुक्त "सीलब्बतपरामास' शब्द को उद्धृत किया है। वस्तुतः विनयवादी विचार धारा को आचारवादी विचारधारा मानने पर आचार में विनम्रता का भी समावेश हो जाता है।
(४) अज्ञानवादी
अज्ञान को प्रश्रय देने वाली अवधारणा अज्ञानवादी कहलाती है। ये अज्ञानपूर्वक किये गये कर्मों का फल निष्फल मानते हैं। उनकी मान्यता में ज्ञानी होना अहितकर है, क्योंकि ज्ञान होगा तो परस्पर विवाद होगा, जिससे राग-द्वेष पैदा होंगे और भवभ्रमण बढ़ेगा। अज्ञानी को मानसिक अभिनिवेश नहीं होता । मानसिक अभिनिवेश ज्ञानी को ही होता है।
अज्ञानवाद में भी दो प्रकार की विचारधाराएं संकलित हैं। कुछ अज्ञानवादी आत्मा के होने में सन्देह करते हैं । उनका मत है आत्मा है तो भी उसे जानने से क्या लाभ ? दूसरी अज्ञानवादी विचारधारा के अनुसार ज्ञान सब समस्याओं का मूल है। अतः अज्ञान ही श्रेयस्कर है।
शान्त्याचार्य के अनुसार अज्ञानवादियों में कुछ लोग जगत को ब्रह्मादि विवर्तमय; कई प्रकृति-पुरूषात्मक; कई षड्द्रव्यात्मक; कई चतुः सत्यात्मक; कई विज्ञानमय; कई शून्यमय आदि-आदि मानते हैं। इसी प्रकार कई आत्मा को भी नित्य या अनित्य आदि मानते हैं। किन्तु इन सबके ज्ञान से क्या प्रयोजन है ? यह ज्ञान स्वर्ग प्राप्ति के लिये अनुपयुक्त है; अकिंचित्कर है।
३७ सूत्रकृतांग - पृष्ठ ४६९ ३८ उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र ४४४
- (युवाचार्य महाप्रज्ञ)
- (शान्त्याचार्य)
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