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________________ ५७० ११. अस्ति जीव स्वतः आत्मनः १२. अस्ति जीव परतः आत्मनः ये जीव के १२ भेद हुए इसी प्रकार अजीवादि के भी १२–१२ होने से . कुल सातं तत्त्वों के १२ x ७ = ८४ भेद हुए। सूत्रकृतांग की चूर्णि में. सांख्य और ईश्वर को कारण मानने वाले वैशेषिक को अक्रियावादी कहा गया है। सांख्यदर्शन के अनुसार क्रिया का मूल प्रकृति है; पुरूष निष्क्रिय है अर्थात् अकर्ता है। अतः पुरूष के अकर्तव्य की अपेक्षा से सांख्य को अक्रियावादी की कोटि में परिगणित किया गया है। वैशेषिकदर्शन के अनुसार सृष्टि का मूल उपादान परमाणु है। विभिन्न परमाणुओं के संयोग से विभिन्न पदार्थों का निर्माण हुआ है। इसी प्रकार उनकी . मान्यता है कि जगत कार्य है तथा उसका कर्ता ईश्वर है जैसे कुम्भकार मिट्टी आदि उपादानों को लेकर घट की रचना करता है, वैसे ही ईश्वर परमाणुओं के उपादान से । सृष्टि की रचना करता है। वही जीवों को कर्मानुसार फल प्रदान करता है। इस : प्रकार कर्मफल आत्मा के अधीन नहीं है। वैशेषिकदर्शन की उपयुक्त अवधारणा को लक्ष्य में रखकर ही इसे अक्रियावादी माना गया है। क्रियावाद और अक्रियावाद का विभाजन मुख्यतः आत्मा को केन्द्र में रखकर ही किया गया है। क्रियावाद का पूर्ण लक्षण इस प्रकार है - आत्मा है, आत्मा कर्म का कर्ता है, कर्मफल का भोक्ता है, पुनर्जन्म है अर्थात् आत्मा नित्य है; तथा उसका मोक्ष है (आत्मा मुक्त हो सकती है)। इसमें से किसी एक मान्यता को भी अस्वीकार करने वाली विचारधारा अक्रियावादी मानी जाती है। सांख्यदर्शन के अनुसार आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है तथा वैशेषिकदर्शन में आत्मा कर्मफल की प्राप्ति में स्वतन्त्र नहीं है। सम्भवतः इसी अपेक्षा से चूर्णिकार ने इन्हें अक्रियावादी दर्शन कहा है। चूर्णिकार ने पंचमहाभौतिक, चतुर्भीतिक, स्कन्धमात्रिक, शून्यवादी, लोकायतिक आदि दार्शनिक धाराओं को भी अक्रियावादी कहा है।33 ३२ सूत्रकृतांगचूर्णि - पत्र २५३ ३३ सूत्रकृतांगचूर्णि - पत्र २५३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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