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१. औपपातिक
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प्रथम उपांग उववाइयं ( औपपातिक) सूत्र है । उपपात का अर्थ प्रादुर्भाव या जन्मान्तर संक्रमण है । उपपात शब्द उर्ध्वगमन या सिद्धिगमन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। अभिधानराजेन्द्रकोश के अनुसार इस अंग में नरक एवं स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले तथा सिद्धि प्राप्त करने वाले जीवों का वर्णन है; इसलिए यह उपांग औपपातिक नाम से विख्यात है। 20
इसके दो अध्याय हैं, जिसमें प्रथम का नाम समवसरण और द्वितीय का उपपात है। इसके वर्णित विषय को तीन अधिकारों में बांटा गया है १. समवसरणाधिकार २. औपपातिकाधिकार और ३. सिद्धाधिकार ।
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समवसरणाधिकार में नगर, उद्यान, वृक्ष, राज्य आदि का वर्णन किया गया है। इसमें भगवान के गुणों, उपदेशों के वर्णन के साथ समवसरण की रचना का भी सजीव चित्रण है ।
औपपातिकाधिकार में विभिन्न परिणामों, विचारों, भावनाओं तथा साधना करने वाले जीवों का पुनर्जन्म किस प्रकार का होता है; इसका वर्णन है।
सिद्धाधिकार में केवलीसमुद्घात, सिद्धों के स्वरूप एवं सिद्धों के सुख आदि का उल्लेख किया गया है।
प्रस्तुत आगम का प्रारंभिक भाग गद्यात्मक एवं अंतिम भाग पद्यात्मक है तथा मध्य में गद्यपद्य का सम्मिश्रण है। फिर भी प्रमुख रूप से यह गद्यात्मक ही है। इसमें राजनैतिक एवं सामाजिक तथ्यों के साथ ही धार्मिक, दार्शनिक
एवं सांस्कृतिक तथ्यों का भी विशद विवेचन किया गया है।
२. राजप्रश्नीय
रायपसेणीय या राजप्रश्नीय द्वितीय उपांग है; नन्दीसूत्र के अनुसार इसका नाम रायपसेणीय हैं।
२० ‘उपपतनमुपपातो देवनारकजन्मसिद्धिगमनं तदधिकृतमध्ययनमौपपातिकमिदं चोपांगं वर्तते।'
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'अभिधानराजेन्द्रकोश', तृतीय भाग, पृष्ठ १०० ।
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