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________________ 'दृष्टिपात' में पात शब्द का अर्थ 'समावेश है अर्थात् सभी नयों, दृष्टियों या दर्शनों के अभिप्राय जिसमें समाविष्ट हैं, वह दृष्टिपात है। यह बारहवां अंग आचार्य भद्रबाहु के पश्चात् लुप्त हो गया। अतः इसके विषय का विवरण नन्दीसत्र के आधार पर दिया जा रहा है। सभी नयों की दृष्टियों से कथन करने वाला तथा जिसमें समस्त भावों की प्ररूपणा हो वह सूत्र दृष्टिवाद है। इसके पांच विभाग हैं - १. परिकर्मसूत्र २. सूत्र ३.पूर्वगत ४.अनुयोग और ५. चूलिका। इसका मूल प्रतिपाद्य लिपिविज्ञान, गणितविद्या, छिन्नछेदनय, अछिन्नछेदनय चतुर्नय, चौदहपूर्वो का संक्षिप्त विवेचन, अर्हत, चक्रवर्ती आदि का जीवनचरित्र तथा अंत में मंत्र-तंत्र आदि का विवरण था। विशेषावश्यकभाष्य की ५५१वीं गाथा में कहा गया है कि दृष्टिवाद में सारे पदार्थों का वर्णन किया गया है। इस प्रकार सिद्ध होता है कि दृष्टिवाद में सभी दर्शनों का समावेश था। अतः जैन आगमों में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थ था। उपांग आगम ... अंगों की तरह उपांगों की संख्या भी बारह ही है। प्राचीन समय में उपांग की गणना अंगबाह्य या अंगप्रविष्ट ग्रन्थों में की जाती थी। तेरहवीं शती के बाद ही उपांग शब्द का उल्लेख प्राप्त होता है। . . शाब्दिक अर्थ में 'उपांग' शब्द अंग से सम्बन्धित प्रतीत होता है किन्तु विषयवस्तु आदि की दृष्टि से उपांगों की अंगों के साथ कोई संगति नहीं बैठती है। __आगम पुरूष की कल्पना में अंगशास्त्रों के समान ही उपांगों के स्थान भी कल्पित किये गये हैं। इन उपांगो की विषय वस्तु निम्न रूप से वर्णित की जा रही है " से किं तं दिट्टिवाए ? दिट्ठिवाए णं सबभावपरूपणा आधविज्जइ से समासओ पंचविहे, पण्णत्ते तं जहा - १. परिकम्मे, २. सुत्ताई, ३. पुबगए, ४. अनुओगे, ५. चूलिया।' - नन्दीसूत्र ६२ (नवसुत्ताणि लाडनूं पृष्ठ २७४) । १९ 'नन्दीचूर्णि' - पृ. -६० - (उद्धृत 'प्रकीर्णक साहित्य : मनन और मीमांसा ' पृष्ठ ६८)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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