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उत्तराध्ययनसूत्र के अठारहवें अध्ययन की तैंतीसवीं गाथा की व्याख्या करते हुये टीकाकार शान्त्याचार्य ने क्रियावादियों के विषय में निम्न जानकारी प्रस्तुत की है – क्रियावादी जीव का अस्तित्व मानते हैं किन्तु उसका अस्तित्व मानने पर भी सभी क्रियावादी एकमत नहीं हैं; कुछ जीव को सर्वव्यापी मानते हैं, कुछ उसे असर्वव्यापी मानते हैं। कुछ मूर्त मानते हैं; कुछ अमूर्त मानते हैं; कुछ उसे सकलशरीरव्यापी मानते हैं; कुछ उसे शरीर के अंगुष्ठ पर्व जितने भाग में अधिष्ठित मानते हैं। सूत्रकृतांगचूर्णि में भी क्रियावाद का इससे मिलता-जुलता स्वरूप : उपलब्ध होता है।"
सूत्रकृतांग के अनुसार जो आत्मा, लोक, गति, अनागति, शाश्वत, जन्म, मरण, च्यवन और उपपात को जानता है तथा जो अधोलोक के प्राणियों के विवर्तन (जन्म-मरण) को जानता है और जो आश्रव, संवर, दुःख व निर्जरा को जानता है वही क्रियावाद का प्रतिपादन कर सकता है। इस प्रकार जो दर्शन, आत्मा, लोक, गति, अनागति, जन्म-मरण, शाश्वत-अशाश्वत, आश्रव, संवर और निर्जरा में विश्वास रखता है; वह क्रियावादी दर्शन है। दशाश्रुतस्कन्ध में क्रियावाद की विस्तृत विवेचना की गई है। जिसके आधार पर आचार्य महाप्रज्ञ ने क्रियावाद के निम्न चार अर्थ प्रस्तुत किये हैं – (१) आस्तिकवाद (२) साम्यवाद (३) पुनर्जन्मवाद और (४) कर्मवाद।
क्रियावादी-क्रिया के साथ कर्ता में विश्वास किस प्रकार रखते हैं, इसे स्पष्ट करते हुए गुरूवर्या श्री हेमप्रभाश्री म. सा. ने 'प्रवचनसारोद्धार' के अन्तर्गत क्रियावाद की व्याख्या करते हुए लिखा है कि संसार की विचित्रता देखने से सिद्ध होता है कि क्रियाएं पुण्य पाप रूप हैं। कोई भी क्रिया कर्ता के बिना नहीं हो सकती। अतः क्रिया का कोई न कोई कर्ता अवश्य है और वह आत्मा है क्योंकि आत्मा के सिवाय ये क्रियायें अन्यत्र संभवित नहीं हो सकती, ऐसा मानने वाले क्रियावादी हैं। प्रवचनसारोद्धार में कियावाद के अपेक्षाभेद से निम्न पांच भेद प्रतिपादित किये गये है (१) कालवाद (२) स्वभाववाद (३) नियतिवाद (४) ईश्वरवाद और (५) आत्मवाद।
- (शान्त्याचार्य)।
१६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ४४३ १७ सूत्रकृतांग चूर्णि-पत्र - २५१ । १८ सूत्रकृतांग - १/१२/२०,२१ १९ उत्तरल्झयणाणि-भाग १, पृष्ठ ४०६ २० प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ-५२१
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३३०) । - (युवाचार्य महाप्रज्ञ)। - (साध्वी हेमप्रभा श्री)
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