________________
५६५
प्रचलित थी, ऐसा निर्देश भी इसमें मिलता है। इसी प्रकार महिने महिने की कठोर तपसाधना भी उस युग में की जाती थी।" इस सन्दर्भ में यह बात सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि उत्तराध्ययनसूत्र में कर्मकाण्डात्मक यज्ञ-याग, दक्षिणा रूप दान और देह दण्डन रूप तप साधना की समीचीन समीक्षाएं की गई हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययनसूत्र में विवेक एवं संयम रूप आत्म साधना को ही अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। यद्यपि इसमें पूर्वोक्त धर्मदर्शन की इन विविध परम्पराओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त नहीं होता, फिर भी हम यहां इसकी टीकाओं में उपलब्ध व्याख्याओं के आधार पर उनका संक्षेप में वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं12
भगवान महावीर के समय में प्रचलित - (१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) विनयवादी और (४) अज्ञानवादी। इन चारों वादों का संक्षिप्त में विवेचन करते हुए सूत्रकृतांग-नियुक्ति में कहा गया है कि अस्ति के आधार पर क्रियावाद, नास्ति के आधार पर अक्रियावाद, विनय के आधार पर विनयवाद एवं अज्ञान के आधार पर अज्ञानवाद का प्रतिपादन किया गया है। इन वादों का उल्लेख सूत्रकृतांग, भगवती, दशाश्रुतस्कंध आदि अनेक ग्रन्थों में भी मिलता है।" उत्तराध्ययनसूत्र में इन चारों का मात्र नाम ही मिलता है लेकिन टीकाकारों ने इनका विशद विवेचन किया है, जो निम्न है - (१) क्रियावादी
जो दर्शन, आत्मा, लोक, पुण्य, पाप आदि को स्वीकार करता है वह क्रियावादी दर्शन कहलाता है। टीकाकार शान्त्याचार्य ने क्रिया का अर्थ अस्तित्ववाद एवं सदनुष्ठान किया है। अतः क्रियावाद का अर्थ आत्मा आदि पदार्थों में विश्वास करना तथा आत्मा के कर्ता-भोक्ता गुण को स्वीकार करना है।
१० उत्तराध्ययनसूत्र - ६/४० । ११ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/४४ । १२ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र ४४३ (ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका -पत्र ३११ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र टीका -पत्र ५०५ १३ सूत्रकृतांगनियुक्ति - ११८ १४ का सूत्रकृतांग - १/६/२७ (ख) भगवती - ३०/१/१ (ग) दशाश्रुतस्कन्ध - ६/३, ७ १५ उत्तराध्ययनसूत्र टीका-पत्र - ४४७
- (शान्त्याचार्य); __- (कमलासंयमोपाध्याय);
- (लक्ष्मीवल्लभगणि)। - (नियुक्तिसंग्रह,पृष्ठ ४६६)। - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३०४) - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं,खंड २, पृष्ठ ३६०); (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ४४०, ४४५) ।
- (शान्त्याचार्य)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org