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है। वह व्यक्ति अपने लिए उपयोगी वस्तुओं एवं अपने स्वार्थ के लाभ के लिये अन्य प्राणियों की प्राणान्तक वेदना से भी कम्पित नहीं होता है। आज हम सौन्दर्य प्रसाधन के क्षेत्र में देखते हैं कि धन के लिये कितने मूक एवं निरीह पशु पक्षियों की हत्या की जाती है। इस प्रकार इच्छा के विस्तार में पापकर्मों का भी विस्तार होता है। इसीलिये उत्तराध्ययनसूत्र में महारम्भ एवं महापरिग्रह को नरक का कारण माना गया है। रही बात इच्छाजयी की तो उत्तराध्ययनसूत्र इच्छा के इन तीनों प्रारूपों में प्रथम स्थान इच्छाजयी को ही देता है। यह अपरिग्रहवाद का सन्देशवाहक है । इसमें कहा गया है कि जिसे धर्म की धुरा को वहन करने का अधिकार प्राप्त है उसे धन, स्वजन तथा ऐन्द्रिक विषयों से क्या प्रयोजन है ? इच्छा हमेशा अतृप्ति, असन्तोष एवं दुःख ही देती है। इसका अत्यन्त विस्तृत विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र में किया गया है। इसमें इच्छा को आकाश की उपमा दी गई है। आकाश का जैसे कोई ओर-छोर नहीं होता वह अनन्त होता है उसी प्रकार इच्छा का भी कभी अन्त नहीं होता है। एक इच्छा अपनी समाप्ति पर नई इच्छा को जन्म देकर जाती है । यही कारण है कि 'चाहिये' अनेक बार 'है' में परिवर्तित हो जाता है; फिर भी 'चाहिये' की धुन कभी समाप्त नहीं होती । इसमें यह भी कहा गया है कि जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता जाता है। कपिल दो माशा सोने की चाह में राजभवन गये थे, किन्तु उनका लोभ करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं तक पहुंचने पर भी शान्त नहीं हो सका । अतः कहा गया है कि धन धान्य आदि से परिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी व्यक्ति को दे दिया जाय तो भी यह लोभाभिभूत आत्मा इतनी दुष्पूर है कि वह उससे सन्तुष्ट नहीं होती। 33
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इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र इच्छानिवृत्ति तथा इच्छाओं को सीमित करने की प्रेरणा देता है। इस शिक्षा का आर्थिक जगत में महत्त्वपूर्ण योगदान है । उत्तराध्ययनसूत्र वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति का पूर्णतः विरोधी है। उसके अनुसार भोगों से इच्छायें तृप्त नहीं होती हैं। अग्नि में डाले गये घी से जैसे ज्वाला प्रथम क्षण में शान्त होती प्रतीत होती है, किन्तु वस्तुतः वह अधिक ही भड़कती है। अतः उपभोक्तावादी संस्कृति में मानवता को त्राण नहीं मिल सकता है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का आर्थिकदर्शन उपभोक्तावाद का विरोधी है।
३२ उत्तराध्ययनसूत्र - ७/६ । ३३ उत्तराध्ययनसूत्र ८ / १६ ।
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