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में यह सत्य है कि अर्थ के बिना जीवन का कोई अर्थ नहीं है किन्तु मात्र अर्थ ही जीवन का अर्थ हो तब भी जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार अर्थ को साधन मानने पर मनुष्य केन्द्र में रह सकता है; किन्तु जब अर्थ साध्य बन जाता है तो मनुष्य गौण हो जाता है एवं अर्थ केन्द्र में आ जाता है।
अर्थ जब जीवन में साधन के रूप में प्रस्तुत होता है तो वह दुःखदायी. नहीं होता। किन्तु जब वह साध्य के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है तो जीवन दु:खमय हो जाता है। अर्थ जीवन का साध्य न बने इसके लिए ही उत्तराध्ययनसूत्र ने अपरिग्रहव्रत एवं परिग्रहपरिमाण व्रत का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।
१५.६ उत्तराध्ययनसूत्र का आर्थिकदर्शन इच्छानिवृत्ति है .
उत्तराध्ययनसूत्र का मुख्य उपदेश इच्छानिवृत्ति है। यह इच्छाओं को सीमित करने की शिक्षा देता है। भारत के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डॉ. मेहता ने भी विश्व को इसी आर्थिकदर्शन का सन्देश दिया है।
__ अर्थ के उपार्जन में मुख्य दो कारण होते हैं – (9) इच्छा और (२) आवश्यकता। उत्तराध्ययनसूत्र आवश्यकता की पूर्ति हेतु उपार्जन किये जाने वाले अर्थ का निषेध नहीं करता है; किन्तु यह इच्छापूर्ति हेतु प्राप्त किये जाने वाले अर्थ का विरोधी है।
इच्छा के भी तीन रूप हमारे सामने आते हैं – (१) अल्पेच्छा (२) महेच्छा और (३) इच्छाजयी (अनिच्छा)। इस सन्दर्भ में आधुनिक अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इच्छा का विस्तार करो। इस सिद्धान्त के पीछे उनका उद्देश्य है कि इच्छा बढ़ेगी तो नये-नये अर्थोपार्जन के साधन विकसित होंगे। किन्तु इसके विपरीत प्रभु महावीर ने अल्पेच्छा एवं अनिच्छा का सिद्धान्त दिया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती है। वह आकाश के समान अनन्त है। अतः इच्छाओं के पीछे मत भागो। महेच्छा वाला व्यक्ति अपनी आजीविका अन्याय, अनीति और अधर्म के साथ चलाता है। वह महारम्भी एवं महापरिग्रही होता
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३१ (क) जहा लाहो तहा लोडो, लाहा लोहो पवड्ढई
(ख) इच्छा उ आगास समा अणतिया
- उत्तराध्ययनसूत्र ८/१७ - उत्तराध्ययनसूत्र - ६/४८
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