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उपर्युक्त विवेचन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र अनुचित रीति से धन कमाने को अनुचित मानता है साथ ही इसमें दूसरों की सम्पत्ति पर अधिकार करने का भी निषेध किया गया है।
(२) वितरण
उत्तराध्ययनसूत्र जीवन के संरक्षण के लिये अर्थ की उपयोगिता स्वीकार करता हैं, किन्तु संचय के लिये नहीं। इसमें एक ओर प्रामाणिकता से अर्थोपार्जन की बात कही गई है, तो दूसरी ओर अर्थ की आसक्ति से विमुक्त होने की. बात भी कही गई है। इन दोनों शिक्षाओं का पूर्णतः पालन करने पर वितरण का सिद्धान्त स्वतः फलित हो जाता है। वस्तुतः उत्तराध्ययनसूत्र के युग में वितरण की कोई समस्या ही नहीं थी, क्योंकि उस युग में जनसंख्या कम थी। व्यक्ति की अपेक्षायें कम थीं तथा प्राथमिक आवश्यकताओं के साधन सहज सुलभ थे। .
(3) उपभोग .
अर्थशास्त्र का तीसरा घटक है - उपभोग। इसकी चर्चा हम इसी अध्याय में 'उत्तराध्ययनसूत्र के आर्थिक दर्शन' के मुख्य बिन्दु के अन्तर्गत करेंगे । अतः “जीवन के संरक्षण के लिये अर्थ की उपयोगिता' से सम्बन्धित चर्चा को हम यहीं विराम देते हैं।
१५.५. अर्थ साधन है साध्य नहीं
उत्तराध्ययनसूत्र का कापिलीय अध्ययन इस बात का स्पष्ट उद्घोष करता है कि अर्थ साधन है साध्य नहीं।
आधुनिक अर्थनीति इस तरह चरमरा गई है कि सोचने को बाध्य होना पड़ता है कि जीवन के केन्द्र में कौन है - अर्थ या मनुष्य ? गृहस्थवर्ग के सन्दर्भ
स्तराध्ययनसूत्र - ४/२; १४/३८ ।
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