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इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र के छत्तीसवें अध्ययन में वनस्पतिकाय के अनेक प्रकारों का नामोल्लेख किया गया है। उनमें से वर्तमान में कई वनस्पतियां अनुपलब्ध हैं। यह तथ्य तत्कालीन वनसम्पदा की समृद्धि का परिचायक है। जैनधर्म में श्रावक के लिए ऐसा व्यवसाय निषिद्ध माना गया है जिसमें वनसम्पदा को क्षति पहुंचे।
खनिजसम्पदा - उत्तराध्ययनसूत्र से ज्ञात होता है कि तब खदानों. से खारी मिट्टी, लोहा, ताम्बा, सीसा, चांदी, सुवर्ण, वज, हरिताल, मेनसिलं, सस्यक, अंजन, प्रवाल, अभ्रपटल, अभ्रबालुक, गोमेदक, रूचक, अंकरत्न, स्फटिक, लोहिताक्ष, मरकत, मसारगल्ल, भुजमोचक, इन्द्रनील, चन्दन, गेरूक, हंसगर्भ, पुलक, सौगन्धिक, चन्द्रप्रभ, वैडूर्य, जलकान्त, सूर्यकान्त आदि खनिज पदार्थ निकाले जाते थे। प्रज्ञापना आदि आगमग्रन्थों में भी उपर्युक्त खनिज पदार्थों का उल्लेख आता है।" इसी तरह कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी मौर्यकाल में पाये जाने वाले खनिज पदार्थों का वर्णन उपलब्ध होता है।
... प्राचीन में यह देश विशिष्ट खनिजसम्पदा से सम्पन्न था; खनिजसम्पदा के अति दोहन को अनुचित माना जाता था। श्रावक द्वारा विस्फोटक पदार्थों से भू-खनन को अनैतिक माना गया है।
जलसम्पदा - भारत हमेशा जलसम्पदा से सम्पन्न रहा है। इसमें ऐसा कोई समय नहीं आया जिसमें जलसम्पदा का अभाव हुआ हो। कृषि एवं यातायात के साधन के रूप में नदियों एवं समुद्रों का विशेष महत्त्व है।
उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित विषयों से यह प्रतीत होता है कि वैश्यों के धनार्जन का मुख्य साधन व्यापार था तथा वे व्यापार के लिये विदेश भी जाया करते थे। व्यापार करने के कारण ही उन्हें वणिक कहा जाता था। वणिक का ही अपभ्रंश रूप बनिया है जो आज भी व्यापारी वर्ग के लिये प्रयुक्त होता है। प्रायः वणिक वर्ग ही समुद्र के पार व्यापार के लिये जाता था। उत्तराध्ययनसूत्र में एक अन्य स्थल पर समुद्र पार करने के परिप्रेक्ष्य में वणिक् का ही दृष्टान्त दिया गया है। इस प्रकार उस समय व्यापार व्यवसाय के क्षेत्र में जलसम्पदा का भी सुदृढ़ स्थान था।
२५ उत्तराध्ययनसूत्र - ३६/६४-६६ | २६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३६/७३-७६ । २७ प्रज्ञापना - १/२०/१ २८ कौटिल्य का अर्थशास्त्र २/६/२४ २६ उत्तराध्ययनसूत्र - ८/६
- (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ ११) - उद्धत् - 'प्राचीन जैन साहित्य में वर्णित आर्थिक जीवन' पृष्ठ १४ ।
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