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(७) उत्पादन
आर्थिक सन्दर्भ में जिन साधनों के माध्यम से अर्थ की प्राप्ति होती है वे साधन उत्पादन के अन्तर्गत गिने जाते हैं।
प्रभु महावीर के युग में उत्पादन का मुख्य स्रोत कृषि था। उस समय बड़े उद्योगों का विकास नहीं हुआ था। अतः लघु उद्योग, वाणिज्य और कृषि ही अर्थोपार्जन के मुख्य साधन थे। उत्तराध्ययनसूत्र में कृषि, वाणिज्य एवं लघु उद्योगों के सम्बन्ध में मात्र प्रासंगिक नामनिर्देश को छोड़कर दिशा निर्देशक सिद्धान्त प्राप्त नहीं होते हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि में यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि मगध देश के पाराशर कुटुम्बी के खेत इतने बड़े थे कि उनमें पांच सौ हलवाहे काम करते थे।
अर्थ की उत्पत्ति में भूमि को अति महत्त्वपूर्ण साधन माना जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्र में भूमि को अत्यन्त व्यापक अर्थ में गृहीत किया गया है। अर्थोत्पत्ति के स्रोत के रूप में धनसम्पदा, खनिजसम्पदा और जलसम्पदा की गणना भी भूमि के ही अन्तर्गत की जाती है।
वनसम्पदा - प्राचीन भारत में वनों का महत्त्वपूर्ण स्थान था। आर्थिक क्षेत्र में इन्हें सम्पदा के रूप में स्वीकार किया जाता था।
उत्तराध्ययनसूत्र में ऐसे अनेक उद्यानों के नाम आते हैं जो अत्यन्त समृद्ध थे। इसमें मण्डिकुक्षि उद्यान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि वह उद्यान विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से घिरा हुआ था और विविध प्रकार के पुष्पों से सुशोभित था। इस उद्यान की प्रशंसा करते हुए इसमें इसे नन्दनवन की उपमा दी गई है।" उत्तराध्ययनसूत्र में केशर उद्यान, तिन्दुक उद्यान, कोष्टक उद्यान आदि का भी उल्लेख आता है।2 भगवती, प्रज्ञापना एवं औपपातिक आदि सूत्रों में भी बड़े-बड़े वनखण्डों का वर्णन आता है। उत्तराध्ययनचूर्णि से भी ज्ञात होता है कि राजगृह के बाहर अठारह योजन की अटवी थी।
२० उत्तराध्ययन चूर्णि-पत्र - ११८ । से उत्तराध्ययनसूत्र - २०/३। २२ उत्तराध्ययनसूत्र - १९/४; २३/४, ५ २१ (क) भगवती - १/३६४ (छ) औपपातिकसूत्र -१ (ग) प्रज्ञापना - १/४० से उतराध्ययनचूर्णि ८/२५८ ।
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ ३६); - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३); - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ १५) ।
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