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उत्तराध्ययनसूत्र में अर्थ की स्वीकृति तथा अस्वीकृति किस रूप में है। आगे हम निम्न बिन्दुओं के सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र के आर्थिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करेंगे।
१५.३ अर्थ से दुःखविमुक्ति सम्भव नहीं
___ उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ असंस्कृत अध्ययन में स्पष्टतः कहा गया है: 'वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते' अर्थात् वित्त या अर्थ प्रमत्त पुरूष को त्राण नहीं दे सकता अर्थात् धन व्यक्ति की सुरक्षा करने में समर्थ नहीं है। पुनश्च, इसके छठे अध्ययन में भी कहा गया है कि अपने कर्मों से दुःख प्राप्त करते हुए प्राणी को स्थावर एवं जंगम अर्थात् चल-अचल सम्पत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरण भी दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते हैं।"
जहां आधुनिक भौतिकवादी संस्कृति यह मानती है कि अर्थ हमारी सुख-शान्ति का आधार है, दुःखविमुक्ति का अमोघ उपाय है वहीं उत्तराध्ययनसूत्र इस बात को स्पष्टतः अस्वीकार करता है। इसके बीसवें 'महानिग्रंथीय' अध्ययन में उदाहरण सहित इस बात को सिद्ध किया गया है कि कर्मपाश में जकड़े व्यक्ति के दुःख को अथाह धन सम्पत्ति भी दूर नहीं कर सकती।" इस सम्बन्ध में अनाथीमुनि की कथा वर्णित है।
.. अनाथीमुनि गृहस्थावस्था में अपार ऐश्वर्य व प्रचुर धन सम्पत्ति के स्वामी थे। एक बार उनकी आंखों में भयंकर वेदना उत्पन्न हुई। पिता सहित पूरा परिवार इस बात को लेकर चिन्तित हो गया। अनेक प्रकार के उपाय किये गये। पिता सारी सम्पत्ति वैद्यों एवं चिकित्सकों को देने के लिये तत्पर हो गये। फिर भी वह प्रचुर श्रेष्ठ सम्पदा कुमार को रोग और पीड़ा से मुक्त नहीं कर सकी। अन्ततः उन्होंने संकल्प किया कि यदि इस अतुल वेदना का निवारण हो जायेगा तो मैं कल प्रातःकाल संयम अंगीकार कर लूंगा। इस संकल्प के प्रभाव से कुमार की नेत्र पीड़ा उपशान्त हो गई। यह शुभ संकल्प का चमत्कार था। अहिंसा आदि महाव्रतों को पालन करते हुए सभी के कल्याण की भावना के संकल्प का परिणाम . था।
* उत्तराध्ययनसूत्र - ४/५
उत्तराध्ययनसूत्र - ६/५. "उत्तराध्ययनसूत्र - २०/२४
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