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________________ ५५३ उत्तराध्ययनसूत्र के 'चित्र-सम्भूति' नामक तेरहवें अध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है 'अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि आया ममं पुण्णफलोववेए' अर्थात् मेरी आत्मा उत्तम अर्थ और कामरूप पुण्यफल से युक्त रही है। इसी प्रकार इसके इक्कीसवें अध्ययन में अर्थोपार्जन के लिये 'पालित' श्रावक के विदेश जाने का भी उल्लेख है। इससे भी यह प्रतिपादित होता है कि न केवल परवर्ती जैन आचार्यों ने अपितु पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने भी अर्थ और काम पुरुषार्थ को पूरी तरह से हेय नहीं माना था। धर्मानुमोदित अर्थ और काम पुरूषार्थ जैन आचार्यों को सदैव ही मात्य रहे हैं। जैनधर्म को निवृत्तिमार्गी, सन्यासमार्गीय अथवा अपरिग्रहवादी जीवनदर्शन में अर्थ के संचय या परिग्रह को अनुचित माना गया है। मरणसमाधि में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अर्थ, आत्मा के संक्लेश एवं वैमनस्य का कारण तथा दुःख और दुर्गति प्रदाता है। इस रूप में अर्थ अनर्थ का मूल है। किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि इस प्रकार का उपदेश मुख्यतः मुनिधर्म को लक्ष्य में रखकर दिया गया है। यह ठीक है कि मुनि जीवन के लिए अर्थ अनर्थ का मूल है। किन्तु जहां तक गृहस्थजीवन का प्रश्न है, उसके लिए अर्थ सर्वथा उपेक्षणीय नहीं है। गृहस्थजीवन के लिए न्यायनीतिपूर्वक धन का अर्जन अपेक्षित है। उत्तराध्ययनसूत्र के आर्थिकदर्शन की विवेचना करते समय हमें इसी दृष्टिकोण को लक्ष्य में रखकर विचार करना होगा। अर्थपुरूषार्थ या अर्थ को स्वीकार किया गया हो या अर्थ को ध्येय माना गया हो, ऐसा स्पष्ट उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र में प्राप्त नहीं होता है लेकिन इससे यह भी प्रतिफलित नहीं हो सकता कि इसमें अर्थपुरूषार्थ को स्पष्टतः अस्वीकार किया गया है। क्योंकि यदि ऐसा होता तो यह गृहस्थधर्म की बात ही नहीं करता। इसमें श्रमणधर्म एवं गृहस्थधर्म दोनों की व्याख्या उपलब्ध होती है और गृहस्थ धर्म का निर्वाह बिना अर्थ के सम्भव नहीं। इस प्रकार यह धर्म से नियमित एवं निर्धारित अर्थोपार्जन को स्वीकार करता है। वस्तुतः यह अर्थपुरूषार्थ को स्वीकार करता है किन्तु अर्थ संचय को अस्वीकार करता है। हमें इस बात पर गहराई से . विचार करना होगा कि सामान्यतः जैनधर्म में और विशेष रूप से १३ उत्तराध्ययनसूत्र - १३/१०। १४ उत्तराध्ययनसूत्र -२१/१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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