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________________ ५५२ उत्तराध्ययनसूत्र में 'उत्तमार्थ' शब्द का प्रयोग भी मिलता है । " परम्परागत दृष्टि से उत्तमार्थ का तात्पर्य 'समाधिमरण' या 'मोक्ष' किया जाता है; उत्तमार्थ का एक अर्थ न्याय नीति पूर्वक अर्जित अर्थ भी हो सकता है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा विवेच्य 'आर्थिक दर्शन' होने से हम यहां उत्तराध्ययनसूत्र में प्रयुक्त 'अर्थ' शब्द के उन्हीं सन्दर्भों को अपने विवेचन का आधार बनायेंगे जहां 'अर्थ', धन, वस्तु या ऐन्द्रिक विषयों का वाचक है । उत्तराध्ययनसूत्र में 'धन' एवं 'वित्त' शब्द का भी प्रयोग मिलता है। 12 यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिये कि 'अर्थ' एवं अर्थपुरूषार्थ इन दोनों में अन्तर है। अर्थ के अन्तर्गत सामान्यतः सम्पत्ति या ऐन्द्रिक विषय का ग्रहण किया जाता है। इस सन्दर्भ में अर्थ 'परिग्रह' का पर्याय बन जाता है और परिग्रह के रूप में 'अर्थ' जैन परम्परा में अनर्थ का कारण माना गया है। किन्तु इसके आधार पर यह मानना नितान्त असंगत होगा कि जैनपरम्परा में अर्थ पुरूषार्थ का कोई स्थान नहीं है। जैनपरम्परा में दो प्रकार के धर्मों का विधान किया गया है - (१) श्रमण (मुनि) धर्म और (२) श्रावक (गृहस्थ ) धर्म। यह स्पष्ट है कि अर्थ के अभाव में गृहस्थजीवन का निर्वाह करना असम्भव है। अतः न्याय नीतिपूर्वक अर्थोपार्जन करना जैनपरम्परा को स्वीकार्य है। जैनाचार्य हरिभद्र और हेमचन्द्र ने गृहस्थ के मार्गानुसारी गुणों की चर्चा करते हुए न्याय नीति पूर्वक धन के उपार्जन को श्रावक का कर्त्तव्य माना है। उपर्युक्त दोनों आचार्यों ने धर्म से अविरूद्ध अर्थ एवं काम को . गृहस्थ के लिये विहित भी बताया है। उपर्युक्त विवेचन से यह सूचित होता है कि जैनधर्म में परिग्रहरूप अर्थ अर्थात् संचयवृत्ति या ममत्व को हेय माना गया है; किन्तु अर्थ पुरूषार्थ को नहीं । • वह गृहस्थ के लिये धनार्जन का निषेध नहीं करता, अपितु अर्जित धन का अपने ऐन्द्रिक सुखों में व्यय करने का निषेध करता है। वह न्यायनीतिपूर्वक अर्थोपार्जन करने को अनुचित नहीं मानता है किन्तु उसकी दृष्टि में उपार्जित धन पर ममत्व रखना, आवश्यकता से अधिक धन संचित करना तथा अर्जित एवं संचित धन का ऐन्द्रिक सुखों की प्राप्ति हेतु व्यय करना अनुचित है। एक न्यासी के रूप में न्यायनीतिपूर्वक धन का उपार्जन और जनहित में उसका विनियोग करना जैनधर्म को मान्य है और इसे ही जैनाचार्यों ने धर्मानुमोदित अर्थ पुरूषार्थ कहा है। ११ उत्तराध्ययनसूत्र - २० / ४६ १२ (क) धन- उत्तराध्ययनसूत्र - ४/२७/८ १०/२६, ३०; १२ / ६, २८, १३/१३,२४,१४/११, १४, १६, १७, ३८, ३६; १६ / २६, ६८, २०/१८ । | वित्त- उत्तराध्ययनसूत्र - १/४४; ४/५ ५/१०; ७/८ १६ / ६७ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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