________________
.५५०
जैनधर्म में अपरिग्रहवाद के साथ-साथ परिग्रह परिमाण का सिद्धान्त भी प्रस्तुत किया गया है। इससे प्रतिफलित होता है कि सामाजिक जीवन में धन के महत्त्व को स्वीकार किया है। इस दृष्टि से जैनधर्म में जहां एक ओर पंचमहाव्रतधारी, गृहत्यागी, अपरिग्रही श्रमणसंघ की व्यवस्था है वहीं दूसरी ओर घर-परिवार में रह कर भी मर्यादित प्रवृत्ति करने वाले अणुव्रतधारी श्रावक की भी व्यवस्था है।
(जैन धर्मानुयायियों में सिर्फ साधुवर्ग ही नहीं है, वरन् बड़े-बड़े राजा-महाराजा, दीवान, कोषाध्यक्ष, सेठ-साहूकार, व्यवसायी, चिकित्सक आदि भी इसके उपासक रहे हैं। वैभवसम्पन्नता, व्यवसायिक कुशलता और दानशीलता में जैन धर्मावलम्बी सदा अग्रणी रहे हैं। व्यावसायिक प्रामाणिकता और उपार्जित धन का लोककल्याण के क्षेत्र में विनियोग एवं दान इनकी विशिष्टता रही है। ) -
इससे निःसन्देह यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म के आचार-विचारों ने गृहस्थ उपासकों की आर्थिक गतिविधियों को भी प्रभावित किया है।
उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्टतः ऐसा कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है जो आर्थिक दर्शन की सुव्यवस्थित रूप-रेखा प्रस्तुत करता हो। फिर भी उसमें यत्र-तत्र अर्थ के सम्बन्ध में जो कुछ उल्लेख प्राप्त होते हैं, वे उसके आर्थिक दर्शन के आधार माने जा सकते हैं। यहां उन बिन्दुओं को उजागर करने से पूर्व हम जैनदर्शन का अर्थ के प्रति क्या दृष्टिकोण रहा है, इस पर संक्षेप में विचार करना उचित समझते हैं।
१५.१ जैन साहित्य में आर्थिक चिन्तन
जैन साहित्य में आध्यात्मिक चर्चा के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था के सन्दर्भ में अर्थ के विषय में भी कुछ उल्लेख प्राप्त होते हैं। (ज्ञाताधर्मकथांग से , ज्ञात होता है कि श्रेणिक का पुत्र अभयकुमार अर्थशास्त्र का ज्ञाता था। प्रश्नव्याकरणसूत्र में इस बात का उल्लेख है कि इस काल में 'अत्थसत्थ' अर्थात्
३माताधर्मकया - १/१६
.
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड ३, पृष्ठ ४) ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org