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उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में जो धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष सम्बन्धी चिन्तन उपलब्ध होता है, उसके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि जैनदर्शन में पुरूषार्थ का अर्थ - पुरूष का प्रयोजन या पुरुष के लिये करणीय कार्य है।
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जैनदर्शन मनुष्य जीवन के प्रयोजनभूत धर्म एवं मोक्ष को ही स्वीकार करता है, क्योंकि शेष दो में से अर्थ तो साधन पुरूषार्थ है और काम ऐन्द्रिक जीवन का साध्य होने पर भी निवृत्तिपरक दृष्टिकोण के कारण वरेण्य नहीं माना गया है। लेकिन नितान्त यह मानना कि जैनदर्शन मात्र मोक्ष को ही साध्यरूप पुरूषार्थ और धर्म को उसका साधनरूप पुरूषार्थ मानता है तथा शेष पुरूषार्थों अर्थात् अर्थ और काम को यथोचित स्थान नहीं देता है ; अनुचित है ।
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है, अतः इसमें अर्थ एवं काम को भी. स्थान तो दिया गया है, लेकिन इसमें इन दोनों का धर्म से अनुप्राणित होना आवश्यक माना है। जैनदर्शन में न्यायोपार्जित वित्त एवं मर्यादित काम को स्वीकृति प्रदान की गई है। चार पुरूषार्थ के क्रम में धर्म के बाद अर्थ को रखा गया है। - इससे यह फलित होता है कि अर्थ का उपार्जन एवं उपयोग धर्म द्वारा नियन्त्रित हो और अर्थ धर्म की साधना का साधन बने। इस प्रकार धर्म एवं अर्थ का यह सम्बन्ध सन्तुलित अर्थव्यवस्था और सामाजिक सुव्यवस्था को स्थापित करने में सहायक होता है।
प्रस्तुत प्रसंग में हमारा विवेच्य विषय 'आर्थिक दर्शन' होने से यहां हम अपने विवेचन को अर्थपुरूषार्थ तक ही सीमित रखेंगे। जैनदर्शन केवल निवृत्तिपरक दर्शन नहीं है; इसमें प्रवृत्ति को भी महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसमें 'अपरिग्रहवाद' के आदर्श को देखते हुए सामान्य व्यक्ति समझता है कि जैन-धर्म में अर्थ का कोई .स्थान नहीं है, क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में भी यह कहा गया है कि धन से मोक्ष नहीं मिलता है।' परन्तु दूसरी ओर जैनपरम्परा इस बात को स्वीकार करती है कि प्रत्येक तीर्थंकर की माता चौदह स्वप्न देखती है। उनमें एक स्वप्न लक्ष्मी का होता है तथा धन की देवी लक्ष्मी का स्वप्न, कुल में धन की वृद्धि का सूचक माना गया है। साथ ही जैनधर्म में श्रमणधर्म के साथ-साथ जो श्रावकधर्म की भी व्यवस्था है, उसके लिए तो अर्थपुरूषार्थ आवश्यक है।
१ उत्तराध्ययनसूत्र ४/५ । २ कल्पसूत्र- पत्र - ३ ।
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