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दोनों ही व्यवस्थायें थीं। फिर भी इतना अवश्य है कि राजतन्त्र का स्थान प्रजातन्त्र ले रहा था।
राजा का कर्तव्य
राजा का प्रमुख कार्य अपनी प्रजा की सुरक्षा करना था। राजा का प्रधानबल उसकी सेना ही थी। उस समय सेना चार भागों में बांटी जाती थी - हाथी, घोड़े, रथ और पैदल। ये सेना के प्रमुख अंग होते थे। न केवल उस युग के मनुष्य कवच धारण करते थे अपितु घोड़े एवं हाथी को भी कवच पहनाया जाता था। विशाल दुर्ग एवं ख़ाई का निर्माण करके भी प्रजा की रक्षा की जाती थी। राजा का दायित्व दूसरे राजा एवं चोर लुटेरों आदि से भी प्रजा की सुरक्षा करना था और इसके लिए राजा प्रजा से कर भी वसूल करता था। मात्र यही नहीं प्रजा के हितों का ध्यान रखना राजा का प्रथम कर्त्तव्य था। यही कारण था कि उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार जब नमिराजर्षि संयम लेने को तत्पर हुए तो उनकी प्रजा अति व्याकुल हो गई। राजा का दायित्व दोहरा था। एक ओर बाह्य शत्रुओं से प्रजा की रक्षा करना था तो दूसरी ओर समाज में उपस्थित अपराधी लोगों से प्रजा की सुरक्षा करना।
राज्य में मुनियों का स्थान : राजा प्रजाजनों के सुख-दुःख में भागीदार होता था । राज्य व्यवस्था की दृष्टि से राजा सार्वभौम प्रशासक होता था। समस्त प्रजाजन उसके अधीन होते थे । उत्तराध्ययनसूत्र के युग में राजा की अपेक्षा श्रमणों या मुनियों का समाज में अधिक सम्मान था। मुनि के प्रति किसी प्रकार का अपराध होने पर राजा उनसे क्षमायाचना करता था। उत्तराध्ययनसूत्र के अठारहवें अध्याय में राजा संजय मृग का शिकार करने पर मुनि से क्षमायाचना करता है। इस प्रकार राजा की अपेक्षा भी
४५ उत्तराध्ययनसूत्र - १/२ । ४६ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/१८,२८ । ७ उत्तराध्ययनसूत्र - १/८ |
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