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यद्यपि राजशासन का स्पष्ट रूप से विवरण उपलब्ध नहीं होता है, तथापि इसमें ऐसे अनेक संकेत मिलते हैं जिसके आधार पर हम उसके राजनैतिक दर्शन को प्रस्तुत कर सकते हैं।
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राजतंत्र और गणतन्त्र
प्राचीन युग में राजतन्त्र एवं गणतन्त्र दोनों ही शासन व्यवस्थायें . प्रचलित थीं । प्रभु महावीर के काल में जहां महाराजा चेटक के अधीन वैशाली का विशाल गणतन्त्र था; श्रेणिक के अधीन राजगृही में राजतन्त्र था। अजातशत्रु कुणिक और वैशाली गणतन्त्र के अधिपति चेटक के बीच जिस रथमूसल संग्राम का भगवतीसूत्र में उल्लेख मिलता है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि वह युग गणतन्त्र से राजतन्त्र की ओर संक्रमण का युग था । उस युद्ध में हुई गणतन्त्र की पराजय एवं राजतन्त्र की विजय यह सूचित करती है कि धीरे-धीरे गणतन्त्रात्मक शासन पद्धति राजतन्त्र का रूप ले रही थी।
उत्तराध्ययनसूत्र में ऐसा संकेत भी मिलता है कि जहां गणतन्त्र में राजा का चुनाव होता था, वहां राजतन्त्र में पुत्र ही पिता के राज्य का अधिकारी बनता था। उस युग का गणतन्त्र वस्तुतः कुलतन्त्र ही था, जहां विभिन्न कुलों के मुखिया मिलकर राजा का चुनाव करते थे और गणतन्त्र या कुलतन्त्र के अधिपति भी राजा ही कहलाते थे। कुल के ज्येष्ठ पुरूष को राजा के चयन का अधिकार होता था। इस प्रकार उस युग के गणतन्त्रों में प्रमुख कुलों के अधिपति ही शासनव्यवस्था का संचालन करते थे और वे राजा के पद पर समासीन भी किये जाते थे।
उत्तराध्ययनसूत्र के बाईसवें अध्ययन में वसुदेव आदि दश जो कुल प्रमुख थे सभी राजा के पद से सम्मानित किये गये थे। किन्तु वहां की सम्पूर्ण शासनव्यवस्था का केन्द्र महाराजा कृष्ण के अधीन था। इसके नवमें एवं अठारहवें अध्ययन में यह भी सूचना मिलती है कि राजा की मृत्यु के बाद अथवा राजा के द्वारा दीक्षा ग्रहण करने पर उसका पुत्र ही राज्य का अधिकारी बनाया जाता था। इससे यह स्पष्ट है कि उत्तराध्ययनसूत्र के काल में राजतन्त्र और प्रजातन्त्र
४४ भगवती - ७/६/१७३-१७५
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- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड २, पृष्ठ ३०१) ।
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