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करने की इच्छा रखते हो ! अरे वह धन वमन के समान है; वमन को खाने वाला पुरूष प्रशंसनीय नहीं होता है।
व्यक्ति की अतृप्त आकांक्षा का उल्लेख करते हुए रानी यह भी कहती है : 'जगत का समस्त धन भी यदि आपका हो जाय तो भी वह आपके लिये अपर्याप्त ही होगा और वह धन भी आपकी रक्षा नहीं कर सकेगा। अतः हे नरदेव ! धर्म के अतिरिक्त कोई रक्षा करने वाला नहीं है। इसी सन्दर्भ में रानी यह भी कहती है कि जैसे दावानल में जन्तुओं को जलते देख रागद्वेष के कारण अन्य जीव प्रमुदित होते हैं उसी प्रकार काम भोग में मूर्छित मूढ़ लोग भी राग-द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत को नहीं समझते हैं। इस प्रकार रानी कमलाक्ती आध्यात्मिक शिक्षाओं के द्वारा राजा को आत्मशुद्धि की प्रेरणा देती है तथा उन्हें चरम लक्ष्य मोक्ष की ओर उन्मुख करती है।
उपर्युक्त विवेचन से यह प्रकट होता है कि नारी पुरूष की वासनापूर्ति का साधन मात्र ही नहीं होती वरन् वह उसे जीवन विकास की सही दिशा की ओर प्रेरित भी करती है।
राजीमती
राजीमती का उत्कृष्ट चरित्र हमें उत्तराध्ययनसूत्र के बाइसवें अध्ययन में देखने को मिलता है। राजीमती को जब यह ज्ञात हो जाता है कि उसके साथ विवाह करने आये नेमिकुमार वापिस लौट गये हैं और उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया है, तो वह भी उनके पदचिह्नों पर चलने के लिये तैयार हो जाती है। परिवारगण अनेक प्रलोभनों के द्वारा राजीमती को रोकने का प्रयत्न करते हैं। वे अन्य राजकुमार के साथ उसके विवाह का प्रस्ताव भी रखते हैं; वह स्पष्ट मना कर देती है। राजीमती के ये उद्गार हैं -
‘पति तो नेम एक माहरो रे, अवर गणुं भाई ने बाप रे ।
इस प्रकार राजीमती भारतीय संस्कृति की गौरव और गरिमा को सुरक्षित रखती हुई संयमी जीवन अंगीकार करती है। राजीमती के उज्ज्वल व्यक्तित्व को उजागर करने वाला एक और उदाहरण उत्तराध्ययनसूत्र में आता है। एक बार
४२ उत्तराध्ययनसूत्र - १४/३८, ३६, ४२, ४६ |
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