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________________ चित्रण उपलब्ध होता है, जिसे हम प्रत्येक सदस्य के सन्दर्भ में निम्नरूप से आलेखित कर सकते हैं - ५३६ माता-पिता एवं पुत्र परिवार में माता पिता का प्रमुख एवं प्रथम स्थान था । सन्तान अपना प्रत्येक कार्य माता-पिता की आज्ञा से ही सम्पन्न करती थी। यहां तक कि माता-पिता की अनुमति के बिना संयम भी ग्रहण नहीं किया जाता था । उत्तराध्ययनसूत्र में भृगुपुरोहित के दोनों पुत्र, मृगापुत्र, समुद्रपाल आदि के अनेक ऐसे वर्णन आते हैं जिसमें पुत्र संयम के लिये माता-पिता से सविनय अनुमति प्राप्त करते हैं। जैनग्रन्थों में प्रायः ऐसे उदाहरणों का अभाव ही है, जिसमें किसी व्यक्ति ने बिना माता-पिता की अनुमति के दीक्षा ग्रहण की हो । अभिभावकों की सहमति से दीक्षा देने या लेने की यह परम्परा आज तक भी जीवित है। उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी उल्लेख आता है कि पुत्र को दीक्षा लेते हुए देखकर माता-पिता भी दीक्षा लेने को तत्पर हो जाते थे। सर्वप्रथम सन्तान के मोह के कारण माता-पिता अनेक प्रकार से उन्हें संयम ग्रहण करने से रोकते थे, किन्तु जब देखते थे कि उनका पुत्र दृढ़प्रतिज्ञ है, उसे संसार का अंशमात्र भी आकर्षण नहीं हैं तब वे न केवल अपने पुत्र को अनुमति प्रदान करते थे, वरन् स्वयं भी साथ में संयम लेने को तत्पर हो जाते थे। माता-पिता के लिये पुत्र के बिना घर में रहना अत्यन्त कष्टप्रद प्रतीत होता था । इस भृगुपुरोहित के उद्गार उल्लेखनीय है । प्रसंग में भृगुपुरोहित अपने पुत्रों को दीक्षा की अनुमति देने के पश्चात् कहते 'जिस प्रकार वृक्ष अपनी शाखाओं से शोभा को प्राप्त होता है और शाखाओं के कंट जाने पर शोभाहीन हो जाता है स्थाणुमात्र रह जाता है, उसी प्रकार माता-पिता अपने पुत्रों से सुशोभित होते हैं; और पुत्रों के अभाव में निस्सहाय हो जाते हैं। जैसे पंखविहीन पक्षी, युद्धक्षेत्र में सेन्य विहीन राजा तथा जहाज के समुद्र में डूबने से निर्धन बने वैश्य की तरह निस्सहाय हो जाते हैं वैसे ही पुत्र के अभाव में मैं अपने आपको निस्सहाय मानता हूं। अतः मेरा तुम्हारे बिना गृह में रहना ८ उत्तराध्ययनसूत्र - १४/७ १६ / १०; २१/१० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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