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हैं; जिनके संयोग में आप प्रसन्न होते हैं और जिनके वियोग में आप परेशान होते हैं; जिनकी अनुकूलता में आप चैन से रहते हैं और जिनकी प्रतिकूलता में आप बैचेन हो जाते हैं।' डॉ. अग्रवाल की उपर्युक्त परिभाषा परिवार को एक व्यापक आयाम देती है। उनके अनुसार परिवार के मुख्य तीन अंग हैं - (१) शरीर (२)सम्बन्धी (पति, पुत्र, पुत्रियां, माता, पिता, भाई, बहिन आदि) (३) सम्पत्ति
परिवार के व्युत्पत्तिपरक अर्थ में उपर्युक्त तीनों अंगों का समावेश हो जाता है तथापि परिवार में सामान्यतः पारिवारिक सदस्यगण का ही ग्रहण किया जाता है। अतः हम अग्रिम क्रम में उत्तराध्ययनसूत्र के परिप्रेक्ष्य में पारिवारिक सदस्य कौन-कौन होते थे, उनकी क्या स्थिति थी तथा उनका आपसी व्यवहार क्या था, इसकी चर्चा प्रस्तुत करेंगे।
उत्तराध्ययनसूत्र और पारिवारिक जीवन
उत्तराध्ययनसूत्र में पारिवारिक जीवन के सन्दर्भ में भी अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनायें उपलब्ध होती हैं। इसमें वर्णित कथानकों के माध्यम से हमें तत्कालीन पारिवारिक परिवेश का परिचय प्राप्त होता है। उस युग में परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने अपने कर्तव्य का समुचित रूप से पालन करता था। अतः इसमें हमें आदर्श माता-पिता, आदर्श सन्तान, आदर्श पति, आदर्श पत्नी, आदर्श भ्राता एवं आदर्श बहिन के दर्शन होते हैं। हम उत्तराध्ययनसूत्र की पारिवारिक स्थिति को निम्न बिन्दुओं के आधार पर विश्लेषित कर सकते हैं -
संयुक्त परिवार प्रणाली - उत्तराध्ययनसूत्र के कुछ कथानकों से यह परिलक्षित होता है कि उस समय संयुक्त परिवार प्रथा का अधिक प्रचलन था। इस के कथानकों में दादा-दादी का उल्लेख कहीं भी प्राप्त नहीं होता है, किन्तु इसके अधिकांश कथानकों में माता-पिता, पुत्र तथा पुत्रवधु की चर्चा आती है। मृगापुत्र, अनाथी मुनि, समुद्रपाल
३५ परिवार में रहने की कला - पृष्ठ है ।
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