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________________ ५३६ विवाह का उद्देश्य वैवाहिक रीति रिवाजों की चर्चा करने के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि जैनदर्शन में विवाह को साध्य या कामपुरूषार्थ के रूप में उचित नहीं माना गया है। जैनपरम्परा में जहां श्रमणसंस्था पूर्णतः ब्रह्मचर्य का पालन करती है अर्थात् वह स्त्री-पुरूष सम्बन्धी क्रियाओं से सर्वथा विरत होती है, वहां गृहस्थ साधक स्वदारा संतोष या स्वपुरूष संतोष व्रत का पालन करता है अर्थात् उसके लिये यह आवश्यक है कि वह अपनी सम्भोग की आकांक्षा को मर्यादित करे - उसे स्वस्त्री या स्वपुरूष तक ही सीमित रखे। जैनदर्शन में विवाह का पूर्णतः निषेध नहीं किया गया है, किन्तु इसके अनुसार विवाह का उद्देश्य घर-परिवार बसाना या संतानोत्पत्ति नहीं है। इसमें विवाह को मात्र इसलिये आवश्यक माना गया है कि प्रत्येक व्यक्ति सन्यासी (श्रमण) नहीं हो सकता। अतः व्यक्ति की कामेच्छा का निर्वाह एक सीमित दायरे में करने के लिये विवाह का प्रावधान रखा गया है। श्रावक के व्रतों के अन्तर्गत यह विधान है कि उसे स्वपत्नी में सन्तोष रखने एवं परस्त्री से विरत होने की प्रतिज्ञा लेनी होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में अनेक राजा-महाराजाओं एवं श्रेष्ठीपुत्रों के विवाह के पश्चात् संयम अंगीकार करने का वर्णन है। इससे भी यह स्पष्ट होता है कि विवाह का उद्देश्य भी अन्ततः निवृत्तिमय या त्यागमय जीवन की ओर उन्मुख होना ही है। १४.३ पारिवारिक जीवन ___सामान्यतः एक साथ एक घर में रहने वाले एक कुल के सदस्यों का समूह परिवार कहा जाता है। इसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ करने पर 'परितः वारयति इति अर्थात् जो चारों ओर से घेरे रखता है, वह परिवार कहलाता है। परिवार के सन्दर्भ में डॉ. निरंजन अग्रवाल लिखते हैं कि 'परिवार की परिभाषा में उन सभी व्यक्तियों एवम् वस्तुओं के नाम आते हैं, जिनके बने रहने में आप सुख का अनुभव करते हैं और जिनके बिगड़ने में आप दुःख का अनुभव करते ३४ उत्तराध्ययनसूत्र-१८/३४-५०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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