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________________ गया है: 'नो हीने नो अइरित्ते' अर्थात् कोई हीन या उच्च नहीं है। इसी प्रकार आचारांगनियुक्ति में भी कहा गया है: “एक्का मणुस्स जाई' अर्थात् मनुष्यजाति एक है। सम्पूर्ण मानवजाति को एक मानने पर भी चार प्रकार के वर्गों की स्थापना का उद्देश्य समाज को एक समुचित व्यवस्था देना तथा श्रम का उचित विभाजन करना था। एक व्यक्ति में सभी प्रकार की योग्यता का होना सम्भव नहीं होता। अतः समाज की जो चार महत्त्वपूर्ण आवश्यकतायें थीं- शिक्षण, रक्षण, उपार्जन एवं सेवा उसके आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, एवं शूद्र वर्ण की व्यवस्था की गई किन्तु इसमें यह आवश्यक नहीं था कि ब्राह्मणकुल में जन्म लेनेवाला व्यक्ति ब्राह्मणोचित योग्यता के अभाव में भी ब्राह्मण ही कहलाये। कर्मणा जातिव्यवस्था का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान सामाजिक विषमता को दूर करना और ऊंच-नीच की भावनाओं को तिलांजलि देना था। वैदिकसंस्कृति में प्रतीकात्मक रुप से यह माना जाता है कि ब्रह्मा के सिर से ब्राह्मण, भुजा से क्षत्रिय, पेट से वैश्य एवं पैर से शूद्र की उत्पत्ति हुई, उसका आशय यह होना चाहिये कि ब्राह्मणवर्ण विद्वत्वर्ग के अन्तर्गत आता है; अतः जो बुद्धि से काम लेता है उसकी उत्पत्ति का सिर से होना सार्थक है। भुजा पौरूष का प्रतीक है और क्षत्रिय वर्ग शूरवीरता का द्योतक है ही, अतः उसकी भुजा से उत्पत्ति भी सार्थक कल्पना है। इसी प्रकार से पालन में व्यापारी वर्ग का विशिष्ट योगदान होता है; अतः पेट से वैश्य की उत्पत्ति बतलाना भी समुचित है तथा पैर, सेवा देने में तत्पर रहते हैं, शरीर का वज़न अपने ऊपर उठाते हैं; अतः सेवकवर्ग (शूद्र) की उत्पत्ति पैरों से मानने का भी औचित्य है। * १४.२ विवाह संस्था एवं उसके उद्देश्य उत्तराध्ययनसूत्र एक अध्यात्मपरक ग्रन्थ है, अतः उसमें स्पष्ट रूप से विवाह सम्बन्धी किसी सूचना की कल्पना करने का कोई औचित्य नहीं है; फिर भी इसमें वर्णित सन्दर्भो में तत्कालीन विवाहसम्बन्धी अनेक तथ्य उजागर हुए हैं। * आवारांग - १/२/३/४६ - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ २०) ६ आचारांगनियुक्ति - १६ - (नियुक्तिसंग्रह, पृष्ठ ४२२) । २० यजुर्वेद-३१/१० - उछत् 'जैन,बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग-२,पृष्ठ १७६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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