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वैश्यवर्ण के लोग श्रमणजीवन भी अंगीकार करते थे। उत्तराध्ययनसूत्र में अनाथीमुनि आदि के ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो वैश्यकुल में जन्म लेकर जैनसंघ में दीक्षित हुए थे।" उपासकदशांग में भगवान महावीर के जिन दस प्रमुख श्रावकों का वर्णन मिलता है वे सभी वैश्यकुल से सम्बन्धित हैं। इन श्रावकों के जीवनवृत्त से यह भी ज्ञात होता है कि व्यवसाय के अतिरिक्त कृषिकर्म भी वैश्यों का प्रमुख कार्य था। जैनाचार्यों की दृष्टि से कृषक और व्यवसायी दोनों ही वैश्य कुल से सम्बन्धित थे।
(४) शूद्र
शूद्रवर्ग की स्थिति प्रायः दयनीय होती है। समाज में इन्हें हेय दृष्टि से देखा जाता है। ये प्रायः निम्नश्रेणी के कार्य किया करते हैं तथा इनका सर्वत्र निरादर किया जाता है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में कुछ ऐसे व्यक्तियों का भी उल्लेख किया गया है, जो निम्नकुल या शूद्रवर्ण में जन्म लेने के उपरान्त भी अपनी योग्यताओं से सर्वत्र पूजनीय बन गये। जैसे चाण्डाल जाति में उत्पन्न हरिकेशबल जैनश्रमण बन गये और उच्च पद को प्राप्त किया। इसी प्रकार पूर्वभव में चाण्डालकुल में उत्पन्न चित्र एवं सम्भूत ने तपस्या करके देवलोक को प्राप्त किया था।
उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लिखित वर्णव्यवस्था के आधार पर यह स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है कि इसमें जातिगत श्रेष्ठता का निर्धारक तत्त्व जन्म नहीं वरन् कर्म रहा है। उपर्युक्त चर्चा से यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इस वर्ण विभाजन का आधार व्यक्ति की योग्यता और उसके द्वारा अपनाये गये कार्य विशेष हैं न कि उसकी वंशपरम्परा। यही बात श्रीकृष्ण ने गीता में कही है:- 'चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्म विभागशः' अर्थात् मेरे द्वारा गुण एवं कर्म के आधार पर चारों वर्गों की स्थापना की गई है।"
उत्तराध्ययनसूत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र इन चारों वर्गों में से एक को भी हीन या उच्च दृष्टि से नहीं देखा गया है। आचारांगसूत्र में भी कहा
१४ उत्तराध्ययनसूत्र - बीसवां अध्ययन । १५ उत्तराध्ययनसूत्र - १२/१। १६ उत्तराध्ययनसूत्र - १३/६, ७ । १७ गीता - ४/१३॥
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