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________________ ब्राह्मणों को दान देकर, सांसारिक भोगों को भोगकर एवं यज्ञ अनुष्ठान आदि करके फिर मुनि जीवन अंगीकार कीजिए।10 इसके प्रत्युत्तर में नमिराजर्षि कहते हैं कि कर्मशत्रुओं पर विजय प्राप्त करना ही सबसे बड़ी विजय है क्योंकि दुर्जय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतने की अपेक्षा स्वयं पर विजय प्राप्त करना ही परम विजय है । इन्द्र के प्रश्नों का प्रतीकात्मक उत्तर देते हुए नमिराजर्षि आगे यह भी कहते हैं कि श्रद्धा नगर है, तप संवर अर्गला है, क्षमा प्राकार है, तीन गुप्तियां शतघ्नी (शस्त्र) हैं, संयम में पराक्रम धनुष है; ईर्यासमिति उसकी प्रत्यंचा है। धैर्य केतन अर्थात् मूठ है; सत्य उस धनुष की डोरी है, तप रूपी बाणों से युक्त इस धनुष से कर्मरूपी कवच को भेद कर अन्तर्युद्ध में विजेता बनना ही सर्वश्रेष्ठ विजेता बनना है। वास्तव में विजय तो पांच इन्द्रियों तथा क्रोध, मान, माया एवं लोभ पर ही करनी होती है। नमिराजर्षि ने दानधर्म से संयमधर्म को श्रेष्ठ बतलाया है। संयमी में जीवों को अभयदान अर्थात् जीवनदान देता है वही सर्वश्रेष्ठ दान है। " ५३१ इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र की दृष्टि में केवल शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर अपने राज्य की सुरक्षा करना ही क्षत्रियधर्म नहीं है, अपितु अपने कर्मशत्रुओं से लड़ते हुए 'अपनी वासनाओं पर विजय प्राप्त करना सच्चा क्षत्रिय धर्म है। (३) वैश्य उत्तराध्ययनसूत्र में ब्राह्मण एवं क्षत्रियवर्ण के साथ वैश्यवर्ण का भी उल्लेख किया गया है। इसमें वैश्यजन के लिये 'वणिक' शब्द का प्रयोग किया गया है। व्यापार करने के कारण इन्हें वणिक कहा जाता है। 12 वैश्यवर्ग देश-विदेश में व्यापार-व्यवसाय करता था । उत्तराध्ययनसूत्र के इक्कीसवें अध्ययन में पालित नामक वणिक् का समुद्र के पार पिहुण्ड नगर में व्यापार करने के लिए जाने का उल्लेख है। साथ ही इसमें वणिक् के लिये श्रावक शब्द का प्रयोग भी किया गया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि जैन गृहस्थवर्ग भी वणिक् होते थे; साथ ही वे शास्त्रों के रहस्य को जानने वाले भी होते थे। 13 १० उत्तराध्ययनसूत्र - ६/१८, २४,२८,३२,३८ । ११ उत्तराध्ययनसूत्र - ६ / २०, २१, २२, ३४, ३५, ३६, ४० । १२ उत्तराध्ययनसूत्र - २१/१ । १३ उत्तराध्ययनसूत्र - २१/२ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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