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करना है। इस प्रकार जो हिंसक/क्रूर कर्म नहीं करता है, वही ब्राह्मण है। उत्तराध्ययनसूत्र में विद्या को ब्राह्मण की सम्पदा कहा गया है।'
___ उत्तराध्ययनसूत्र में ब्राह्मणों के जो कर्तव्य निरूपित किये गये हैं, वे जैनश्रमण की आचार संहिता के साथ अत्यधिक सामंजस्य रखते हैं, यथा- जो पापरहित होने से संसार में अग्नि की तरह पूजनीय, श्रेष्ठ पुरूषों द्वारा प्रशंसनीय, समभावी, मधुरभाषी, कालिमा से रहित, स्वर्ण की तरह राग-द्वेष एवं भय आदि दोषों से रहित, तपस्वी, जितेन्द्रिय, सदाचारी, निर्वाणाभिमुख, मन, वचन एवं काया से त्रस एवं स्थावर जीवों की हिंसा नहीं करने वाला, क्रोधादि के वशीभूत होकर असत्य वचन नहीं बोलनेवाला, अदत्त वस्तु को ग्रहण नहीं करनेवाला, मन, वचन, काया से मैथुन का त्यागी, कमल की तरह कामभोगों में अलिप्त रहने वाला अलोलुपी : क्षुधाजीवी अर्थात् भिक्षावृत्ति से क्षुधानिवृत्ति करनेवाला तथा सभी प्रकार के संयोगों से मुक्त है, वह ब्राह्मण है।
(२) क्षत्रिय
उत्तराध्ययनसूत्र जहां एक ओर ब्राह्मणों के प्रभुत्व को प्रस्तुत करता है, वहां क्षत्रियों की गौरवगाथा को भी प्रस्तुत करता है। इसमें ऐसे अनेक क्षत्रिय राजाओं का उल्लेख है जिन्होंने घरपरिवार, राज्यवैभव का त्याग कर संयम जीवन स्वीकार किया और अन्ततः मुक्तिपद को प्राप्त किया।
इसके नवम अध्ययन में क्षत्रियोचित कर्म का व्यापक रूप से उल्लेख किया गया है। इन्द्र नमिराजर्षि को कहते हैं कि हे क्षत्रिय! आप सर्वप्रथम अपने कर्तव्य को पूर्ण करें तत्पश्चात् संयम स्वीकार करे। इन्द्र क्षत्रियधर्म का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे क्षत्रिय! पहले आप नगर का परकोटा, नगर का द्वार, अट्टालिकायें, दुर्ग की खाई, शतघ्नी (एक बार में सैकड़ों लोगों को मारनेवाला यन्त्र अर्थात् तोप) आदि का निर्माण करके अनेक राजाओं को अपने वश में कीजिये, साथ ही लुटेरों, डाकुओं एवं चोरों से नगर की सुरक्षा की व्यवस्था कीजिये, श्रमण एवं
७ उत्तराध्ययनसूत्र - २५/१६ | ८ उत्तराध्ययनसूत्र - २५/१६-२७ । ६ उत्तराध्ययनसूत्र - १५/३४-५०।
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