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________________ ५२९ ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र होता है। इस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र कर्मणा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करता है, किन्तु वह यह मानकर चलता है कि व्यक्ति की श्रेष्ठता या हीनता उसकी सम्पन्नता या सामाजिक दायित्व के आधार पर नहीं अपितु उसके वैयक्तिक चारित्र या सद्गुणों के आधार पर होती है। कर्तव्य क्या है, यह महत्त्वपूर्ण नहीं है; महत्त्वपूर्ण है उस कर्तव्य का निर्वाह किस निष्ठा सहित किया जा रहा है। ___ उत्तराध्ययनसूत्र जहां एक ओर कर्मणा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करता है, वहीं दूसरी ओर वर्णगत या जातिगत श्रेष्ठता को अस्वीकार करता है। इसमें जन्मना, वर्ण-व्यवस्था की स्पष्ट समीक्षा उपलब्ध होती है। इसके अनुसार जाति की कोई श्रेष्ठता नहीं, श्रेष्ठता व्यक्ति के चरित्र की है। वस्तुतः समाज व्यवस्था के क्षेत्र में कर्म पर आधारित वर्ण-व्यवस्था (श्रम विभाजन) को परिवर्तित करके जब उसे तथाकथित उच्चवर्गों के निहित स्वार्थों के द्वारा जन्म के आधार पर बनाने का कार्य किया गया तभी उसके प्रति एक विद्रोह का स्वर मुखर हुआ और वही स्वर उत्तराध्ययनसूत्र के बारहवें अध्ययन में ध्वनित होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र के दायित्वों की व्यापक रूप से चर्चा की गई है, जो निम्न है - (७) ब्राह्मण - उत्तराध्ययनसूत्र में चारों वर्गों में ब्राह्मणों की प्रमुखता इसी आधार पर स्वीकार की गई कि वे चरित्रवान् हों। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अपितु व्यक्ति अपने चारित्र के बल से ब्राह्मण होता है। उत्तराध्ययनसूत्र . • स्पष्टतः उस ब्राह्मण की श्रेष्ठता को स्वीकार करता है जिसका आचरण उत्तम हो। इसके पंच्चीसवें अध्ययन में ब्राह्मणों की विशेषताओं का वर्णन करते हुए बताया गया है कि जो उत्तम गुणों से युक्त होता है, वही ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी है। ब्राह्मण के लिए जैनागमों एवं उत्तराध्ययनसूत्र में भी 'माहण' शब्द का प्रयोग किया गया है। 'माहण' शब्द में 'मा' का अर्थ 'निषेध एवं 'हण' का अर्थ हिंसा या हनन .५ उत्तराध्ययनसूत्र - २५/३१ । ६ (क) आधारांग - १/३/३/४५; १/४/४/२०; १/८/१/१४ (लाडनूं); (ख) सूत्रकृतांग - १/१/६/२/११/३/३२ (लाडन); (ग) उत्तराध्ययनसूत्र - २५/१६-२७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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