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________________ दुष्प्रवृत्तियों से विमुख होना व्यक्तिगत एवं सामाजिक दोनों ही जीवनधाराओं के लिये श्रेयस्कर है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र का बत्तीसवां अध्ययन अनासक्त जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह अनासक्त दृष्टि प्राणीमात्र के कल्याण की शुभ भावना से असम्पृक्त नहीं है। पुनश्च इसमें एक प्रसंग पर यह भी कहा गया है 'मेत्तिं भूएस कप्पए' अर्थात् प्राणीमात्र के साथ मैत्री की स्थापना करनी चाहिए। यह प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभाव की कल्पना सामाजिक कल्याण की भावना से भिन्न नहीं है । ) ५२८ (उत्तराध्ययनसूत्र श्रमणधर्म एवं श्रावकधर्म दोनों की विवेचना करता है. सूत्रकार का आशय श्रमणधर्म के द्वारा ऐसे वर्ग की स्थापना करना है जो निस्वार्थ निस्पृह और वीतराग भाव से अपने एवं दूसरों के कल्याण में ही अपना समय व्यतीत करे । इसी प्रकार इसमें गृहस्थधर्म की व्यवस्था के भी कुछ ऐसे संकेतात्मक निर्देश् दिये गये हैं जिनके द्वारा व्यक्ति सदाचारी होकर परिवार, देश एवं समाज क सर्वांगीण विकास कर सकता है। जैन धर्म में श्रावक के बारह व्रतों की व्यवस्था एक स्वस्थ समाज की संरचना का आधार है। सदाचारी एवं सुव्रती श्रावकों के द्वारा ही उत्कृष्ट समाज का गठन सम्भव हो सकता है ।) अब हम अग्रिम क्रम में कुछ बिन्दुओ के परिप्रेक्ष्य में उत्तराध्ययनसूत्र के सामाजिक दर्शन को व्याख्यायित करने का प्रयास् करेंगे। १४.१ वर्णव्यवस्था एवं जातिगत श्रेष्ठता का खण्डन एक आदर्श समाज के लिये सामाजिक समता आधारभूत सिद्धान्त होत है। समाज के सभी सदस्यों का समान मूल्य एवं महत्त्व स्वीकार करना सामाजिक समता का मुख्य आधार है। समाज व्यवस्था में यह अत्यावश्यक है कि समाज के विभिन्न सदस्यों के बीच कार्यों का विभाजन उनकी योग्यता के आधार पर हो समाज के सभी सदस्यों का बौद्धिक विकास, कार्य, रूचि आदि में वैविध्य होता है। और इस आधार पर उनके दायित्व या कार्य भी भिन्न-भिन्न होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में योग्यताओं के आधार पर कार्यों के विभाजन को स्वीकार किया गया है। उसमे स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि कर्म के आधार पर ३ उत्तराध्ययनसूत्र - ६/२ । ४ उत्तराध्ययनसूत्र - ४ / २; ५/६ | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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