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उत्तराध्ययनसूत्र का सामाजिक दर्शन
उत्तराध्ययनसूत्र में तत्त्वमीमांसा एवं ज्ञानमीमांसा के साथ-साथ आचार मीमांसा सम्बन्धी अवधारणाएं भी व्यापक रूप से उपलब्ध होती है । इसमें प्रतिपादित सैद्धान्तिक अवधारणाओं का मुख्य प्रयोजन आध्यात्मिक चेतना के समुचित विकास के द्वारा सामाजिक व्यवहार की शुद्धि है।
जैनधर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है; अतः जन सामान्य की इसके प्रति यही धारणा रही है कि यह व्यक्तिवादी धर्म है, किन्तु यथार्थ चिन्तन के आधार पर यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनधर्म को असामाजिक या व्यक्तिवादी धर्म मानना नितान्त असंगत है।
प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है कि अहिंसा आदि के उपदेश का प्रयोजन लोकहित या लोकमंगल भी है और यह लोकमंगल सामाजिक व्यवहार की
शुद्धि पर आधारित है। इसी प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में वर्णित सिद्धान्तों की सामाजिक 'उपयोगिता अनेक प्रकार से सिद्ध होती है। अतः प्रस्तुत अध्याय में हम उत्तराध्ययनसूत्र के सिद्धान्तों की सामाजिक जीवन एवं सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र में क्या उपयोगिता है, इस पर विचार करेंगे।)
(उत्तराध्ययनसूत्र दुःख की यथार्थता के चित्रण के साथ दुःख विमुक्ति का जीवनदर्शन भी प्रस्तुत करता है। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि दुःख विमुक्ति का यह प्रत्यय वैयक्तिक न होकर सामाजिक है क्योंकि यह स्वयं की दुःख विमुक्ति के साथ प्राणीमात्र की दुःखमुक्ति की बात करता है। यही नहीं इसके प्रत्येक सिद्धान्त के साथ सामाजिकता का तत्त्व जुड़ा हुआ है। अहिंसादि पांच महाव्रतों की व्यक्तिगत उपयोगिता के साथ सामाजिक उपयोगिता भी है, क्योंकि हिंसा, झूठ, चोरी, व्याभिचार
और संग्रह यह सब सामाजिक जीवन की ही दुष्प्रवृत्तियां हैं। अतः इनका त्याग स्व-पर दोनों के लिये ही हितकर है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो पूर्वोक्त
प्रश्नव्याकरण - ६/१-१५ २ उत्तराध्ययनसूत्र - ३२/७, ८.
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड ३, पृष्ठ ६८१) ।
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