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________________ उत्तराध्ययनसूत्र का दृष्टिकोण आधुनिक मनोविज्ञान के दृष्टिकोण से कहां तक सहमत है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार इन्द्रिय निरोध से तात्पर्य इन्द्रियों को अपने अपने विषयों से विमुख या विलग करना नहीं है वरन् आत्मा को विषय-सेवन के निमित्त से उत्पन्न होने वाले भावों अर्थात् राग-द्वेष से अप्रभावित रखना है। इस सन्दर्भ में इस के बत्तीसवें अध्ययन में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि इन्द्रियों के मनोज्ञ (प्रिय) अथवा अमनोज्ञ (अप्रिय) विषय आसक्त व्यक्ति के लिये राग-द्वेष के कारण होते हैं क्योंकि ऐन्द्रिक विषयों की अनुभूति रागी-व्यक्ति के लिये ही दुःख (बन्धन) का कारण होती है, किन्तु वीतरागियों के लिए बन्धन या दुःख का कारण नहीं होती है। शब्द आदि जो इन्द्रियों के विषय हैं उनकी अनुभूति वीतराग के मन में राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करती है। इस प्रकार ऐन्द्रिक विषयों की अनुभूति एक अलग तथ्य है और अनुकूल एवं प्रतिकूल अनुभूतियों में राग द्वेष करना एक अलग तथ्य है। अनुभूति विषयाश्रित है किन्तु राग-द्वेष व्यक्ति के आश्रित हैं। राग-द्वेष करने में व्यक्ति स्वतन्त्र होता है, जबकि विषयानुभूति में वह परतन्त्र है। इसे स्पष्ट करते हुये उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि कामभोग न किसी को बंधन में डालते हैं और न ही किसी को मुक्त करते हैं किन्तु विषयों में राग-द्वेष करने वाला व्यक्ति स्वयं विकृत होता है और फलतः दुःख को प्राप्त होता है, अतः विषयों का त्याग नहीं वरन् विषयों में होने वाली आसक्ति (राग-द्वेष) का त्याग करना है । इस तथ्य का समर्थन करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है - 'यह सम्भव नहीं है कि कानों में पड़ने वाले अच्छे बुरे जो शब्द हैं, वे सुनने में ही न आये'। अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष के भावों का त्याग करना चाहिए। यह भी शक्य नहीं कि आंखों के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न दिखाई दे । अतः रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चहिए। यह शक्य नहीं कि नासिका के 'समक्ष उपस्थित सुगन्ध या दुर्गन्ध की अनुभूति व्यक्ति को नहीं हो, अतः गन्ध का नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति होने वाली राग-द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं की जीभ पर आयी हुई वस्तु के अच्छे या बुरे स्वाद की अनुभूति न हो, अतः रस का नहीं रस के प्रति उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि शरीर से सम्पृक्त होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की १७ एविंदियत्था य मणस्स अत्या, दुक्खस्स हेऊ मणुयस्स रागिणो । ते चेव थोपि कयाइ दुक्खं, न वीयरागस्स करेंति किंचि ।। ...न काम भोगा समयं उर्वति, न यावि भोगा विगई उति । जेतप्पओसी य परिग्गही य. सो तेस मोहा विगई उवेइ ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र ३२/१०० एवं १०१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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