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________________ ५२३ उत्तराध्ययनसूत्र में मन का निरोध कैसे करना चाहिये, इस प्रक्रिया को सूक्ष्म रूप से व्याख्यायित किया गया है। इसके तेवीसवें अध्ययन में केशीश्रमण, गौतम स्वामी से पूछते हैं कि आप एक ऐसे भयानक दुष्ट अश्व पर सवार हैं जो बड़ी तीव्र गति से भागता है, वह आपको उन्मार्ग की ओर न ले जाकर सन्मार्ग की ओर कैसे ले जा सकता है ? इस प्रश्न का प्रतीकात्मक उत्तर देते हुये गौतमस्वामी कहते हैं कि यह मन साहसिक दुष्ट अश्व है जो चारों ओर भागता है । उसे मैं जातिवान अश्व की तरह श्रुतरूपी रस्सियों से बांधकर समत्व एवं धर्म शिक्षा से उसका निग्रह करता हूं। इस प्रकार धर्मशिक्षा, ज्ञान एवं समत्व के द्वारा मन का निग्रह करना दमन नहीं वरन् उदात्तीकरण है। उपर्युक्त गौतमस्वामी के उद्बोधन में तीन शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं विषय को स्पष्ट करने में सहायक हैं। 'सुयरस्सीसमाहियं, ‘सम्म' एवं 'धम्मसिक्खाए' इसमें श्रुत रूपी रस्सी से बांधने का तात्पर्य है विवेक एवं ज्ञान के द्वारा मन को सही मार्ग पर चलाना तथा सम्मं का आशय है समत्व द्वारा मन को सन्तुलित बनाना। इसी प्रकार धम्मसिक्खाए का अर्थ है धर्मशिक्षण द्वारा मन को सद्प्रवृत्तियों में लगाना। इस प्रक्रिया से किया गया दमन वासनाओं का निरसन ही करता है न कि उपशमन। जैनदर्शन की साधना वासनाशून्यता की साधना है; अतः इसमें बलपूर्वक दमन नहीं वरन् विवेकपूर्वक शमन इष्ट है। गीता में भी कहा गया है : 'अभ्यास एवं वैराग्य के द्वारा मन का निग्रह करें यहां भी विवेकपूर्वक निग्रह की ही बात कही गयी है। जैसे उत्तराध्ययनसूत्र में ज्ञान रूपी रस्सी से मन को वश में करने का कहा गया है वैसे ही यहां भी वैराग्य से मन को वश में करने की प्रेरणा दी गयी है एवं जिस प्रकार उत्तराध्ययनसूत्र में धर्म शिक्षा से मन को संयत करने का कहा गया है उसी प्रकार गीता में अभ्यास पूर्वक मनोनिग्रह करने की शिक्षा दी गई है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार इन्द्रियों के व्यापार का निरोध अस्वाभाविक है। आंख के समक्ष उसका विषय उपस्थित हो और वह उसका अनुभव या दर्शन न करे तथा इसी प्रकार भोजन करते समय जिह्वा स्वाद को स्वीकार न करे यह असम्भव है। अतः यह विचारणीय है कि इन्द्रिय दमन के सन्दर्भ में ८५ उत्तराध्ययनसूत्र २३/५५ एवं ५६ । ८६ गीता ६/३५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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