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अनुभूति न हो, अतः स्पर्श का नहीं वरन् स्पर्श जन्य राग-द्वेष रूप मनोवृत्ति का त्याग करना चाहिए । यही सत्य आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भावना नामक अध्ययन में भी मिलता है।
इस प्रकार हम देखते है कि आचारांग एवं उत्तराध्ययनसूत्र आदि जैनागमों में वर्णित इन्द्रिय-निरोध का चित्रण पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है। उत्तराध्ययनसूत्र के प्रथम अध्ययन में आया है : 'अप्पा चेव दमेयव्यो' - आत्मा (इन्द्रिय एवं मन) का दमन करना चाहिए। यहां यह ध्यान रखना अत्यावश्यक है कि दमन साधना की प्राथमिक स्थिति है न कि अन्तिम स्थिति अर्थात् दमन से निरसन की ओर उन्मुख होना है। सामान्य जीव में एकाएक वासनाओं के निरसन की पात्रता नहीं होती है, अतः उसके लिये वासनाओं के दमन की प्रक्रिया में से होकर वासनाओं के निरसन की प्रक्रिया पर पहुंचना होता है।
यथार्थतः जैनदर्शन में साधना का सच्चा मार्ग क्षायिक है, औपशमिक नहीं। क्षायिक मार्ग वासनाओं के निरसन का मार्ग है; वह विकार वासना से ऊपर उठाता है जबकि औपशमिक मार्ग में वासनाओं का दमन होता है । औपशमिक मार्ग इच्छाओं के निरोध की प्रक्रिया है। क्षायिक मार्ग की तरह है जिसमें जल में रही हुई गन्दगी को दूर कर दिया जाता है जबकि औपशमिक मार्ग गंदे जल में फिटकरी आदि डालने का कारण जल में रही हुई गन्दगी पात्र में नीचे बैठ जाती है, समाप्त नहीं होती।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन भी आधुनिक मनोविज्ञान की तरह दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है। उसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं अपितु चित्त विशुद्धि है; वासनाओं से ऊपर उठ जाना है। वह इन्द्रियों के निरोध या निग्रह की नहीं किन्तु इन्द्रियजन्य अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता, तटस्थता, समत्व या साक्षीभाव की अवस्था है। उपर्युक्त तथ्य स्पष्टतः सूचित करता है कि जैनधर्म की साधना दमन की नहीं है। फिर भी जैनागमों में अनेक स्थलों पर दमन शब्द का प्रयोग हुआ है । इस परिप्रेक्ष्य में हमें यह समझ लेना चाहिए कि सामान्य स्तर पर प्रयोग किये जाने वाले दमन शब्द एवं आगमिक दमन शब्दों में महद् अन्तर है।
८८ उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२२-६९ ८६ आचारांग २/११/-७८ ६० उत्तराध्ययनसूत्र १/१५ ।
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ २३१- २४८)।
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