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विशेष का चिन्तन करना तथा गुण का चिन्तन करते-करते किसी पर्याय विशेष पर एकाग्र हो जाना पृथक्त्व वितर्क सविचारी ध्यान है।
निष्कर्षतः इस ध्यान में शुक्लध्यान की धारा तो सतत प्रवाहित रहती है, किन्तु ध्यान के विषय बदल जाते हैं। (२) एकत्व वितर्क अविचारी - द्रव्य, गुण एवं पर्याय में से किसी एक विषय पर ध्यान को केन्द्रित करना एकत्व वितर्क अविचारी ध्यान है। इस ध्यान में विषय परिवर्तन नहीं होता है। (३) सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति – सयोगी केवली आत्मा जब मनोयोग एवं वचनयोग का निरोध करके मात्र सूक्ष्मकाययोग के आलम्बन से जो ध्यान करती है, वह सूक्ष्म क्रिया अनिवृत्ति ध्यान है। . (४) समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती - यह सूक्ष्म काययोग के निरोध होने पर होने वाला ध्यान है। शुक्लध्यान की अवस्था में योग क्रिया अर्थात् मानसिक, वाचिक एवं कायिक गतिविधि समुच्छिन्न हो जाती है। अतः इस ध्यान में पुनः पतन की सम्भावना नहीं रहती है। इसे अप्रतिपाती भी कहा गया है।
(१) अव्यथा - - (२).असम्मोह -
(३) विवेक - .. (४) व्युत्सर्ग -
शुक्लध्यान के लक्षण किसी भी प्रकार के क्षोभ से निवृत्ति; मोह का पूर्णतः अभाव; आत्म अनात्म का बोध; शरीर एवं बाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग।
शुक्लध्यान के आलम्बन (9) क्षान्ति (क्षमा); (२) मुक्ति (निर्लोभता); (३) आर्जव (सरलता); (४) मार्दव (मृदुता)।
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