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________________ ५१६ धर्मध्यान के चार लक्षण (७) आज्ञारूचि - जिन आज्ञा में अटूट श्रद्धा का होना। (२) निसर्गरूचि – धर्मकार्यों में स्वाभाविक रूप से रूचि होना। (३) सूत्ररूचि - आगमों के पठन पाठन में रूचि होना। (४) अवगाढ़रूचि- आगमिक विषयों के गहन चिन्तन एवं मनन में रूचि होना। धर्मध्यान के आलम्बन (१) वाचना - अध्ययन करना; (२) प्रतिपृच्छना - शंका के निवारणार्थ प्रश्न करना; (३) परिवर्तना - पुनरावर्तन करना; (४) अनुप्रेक्षा - अर्थ का गहन चिन्तन करना। धर्मध्यान की अनुप्रेक्षा (१) एकत्व अनुप्रेक्षा – एकाकीपन का चिन्तन; (२) अनित्य अनुप्रेक्षा- पदार्थों की अनित्यता का चिन्तन; (३) अशरण अनुप्रेक्षा- अशरणता का चिन्तन; (४) संसार अनुप्रेक्षा - संसार-परिभ्रमण का चिन्तन। इस प्रकार धर्मध्यान के भेद, लक्षण, आलम्बन एवं अनुप्रेक्षा का वर्णन किया गया है। शुक्लध्यान यह चेतना की शुद्ध-स्वरूपमय एकान्त परिणति है। इसके निम्न चार प्रकार हैं - (१) पृथक्त्व वितर्क सविचारी - ध्याता जब द्रव्य, गुण एवं पर्याय का पृथक्-पृथक ध्यान करता है, जैसे द्रव्य का चिन्तन करते-करते, द्रव्य के किसी गुण यातामजाक टारगण पाया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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